मन का मनमानापन
1 कविता
है देखा तुमने कभी –
मन तुममे है –
पर तुम्हारे बस में नहीं –
यह बस में करता है तुमको –
कुछ पल की ख़ुशी के लिए –
फिर होता है – दर्द तुमको –
पर फिर-भी तुम इसके
आगे झुक जाते हो –
ये जब चाहता है –
तुम्हे अपने बस में कर लेता है –
है यह प्रत्यक्ष अनुभव मेरा भी –
पर मन का मनमानापन –
है अच्छा नहीं –
ज़िन्दगी के लिए –
ज़िन्दगी तुम्हारी है –
पर बीतता मन के अनुसार है –
मन ना हो-तो राग
छूट जायेगा – पर
सोचो मन ही –
तुम्हारा खुदा है क्या ?
मन के बिना तुम्हारा कोई वज़ूद नहीं है क्या ?
अगर हा – तो गुलाम तन है – मन का
और ज़िन्दगी तलवे चाटती है मन का |
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2. कविता
समाज और नज़र
सुनो !
तुम यूँ ना हमको देखा करो –
समाज तुमको-मुझको तब और
देखता है – जब तुम
मुझको – देखा करती हो –
है देखा मैंने भी तुम्हे
देखते वक़्त –
हमको पता है –
हुआ कुछ नहीं है –
हमारे बीच –
और कभी होगा भी नहीं शायद –
पर ये समाज है –
ये कुछ भी मान लेता है –
जो न हुआ हो –
उसके लिए भी दाग लगा देता है –
तुम जब देखा करो –
देखा करो समाज को भी –
आख़िरकार लड़ना तुम्हे
बेमतलब में पड़ जायेगा –
समाज से दोहरी लड़ाई –
एक तो पहले ही लड़ती हो –
दूसरा तुम पर और डाल देगा –
देखा करो तो – देखा करो समाज को भी –
यह समाज उतना स्वाभाविक नहीं –
जितना हर एक परिंदा खुद में है –
समझा करो –
तुम भी हो इस समाज की ही –
लड़ो जो तुम्हारे उड़ान के विरूद्ध है –
पर देखा करो –
छोटी ज़िन्दगी है –
किस-किस बात के लिए लड़ोगी समाज से | ….. वरुण
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Meri kitabe :-
1.हाथ जोड़ ली – और शक्ति छोड दी : समझ ज़रूरी है! (Hindi Edition) Kindle Edition
2.कली और भगवान कल्कि का युद्ध