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भगवान को दान

forhindi 16 जुलाई 2022 0 comment

 

 भगवान को दान

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एक ब्राह्मण था। जो कि बहुत विद्वान और धनी था।

उस राज्य के राजा से भी बड़ा धनवान माना जाता था।

यह ब्राह्मण और ओहदे से यह राज पंडित भी था।

और राज्य के सबसे बड़े मंदिर भगवान विष्णु के मंदिर का अधिकारी भी।

इसने अपने धन और ज्ञान की ललक के कारण विश्व की सभी साहित्यिक रचना पढ़ डाली ।

और जब उसने 16000 से भी ज्यादा किताबें पर डाली उसे लगा कि भगवान से ज्यादा शक्तिशाली खुद है ।

तो इस कारण उसे लगा कि अब उसे भगवान ने जो भी कुछ दिया है,

उसके बदले में सभी कुछ देना चाहिए जिससे वह भगवान की बराबरी कर सके।

और जनता – जनसामान्य उसको मान सके। तो संपूर्ण राज्य में घोषणा कर दी कि

वह अपनी धन-दौलत में से आधा हिस्सा भगवान की मूर्ति बनाने और

मंदिर को देगा, जो कि एक प्रकार से भगवान को दान देना ही होगा।

 

और वह अपने आधे धन को दे देता है पर इससे मूर्ति का पांव ही बन पाता है सिर्फ।

मूर्ति बहुत बड़ी और हीरें – ज्वहारात और  बेशकीमती पत्थर की बनानी थी। जिस पर उसने अपना सारा धन दे दिया।

मूर्ति कि धर तक बन गई बाकी शिष शेष बच गया था। लेकिन अब उसके पास कुछ नहीं बचा था।

घर गिरवी रखी और बहुत बड़ा  यज्ञ करवाया और लोगों ने भगवान की मूर्ति और

मंदिर के लिए धन दौलत दिए।

पर इससे भी मूर्ति पूर्ण ना हो पाया। तो इस ब्राह्मण ने अपने

विद्या के प्रयोग से हवन करके भगवान से ही पूछना चाहता था

कि मूर्ति किस  कारण नहीं बन पा रहा है । ताकि वह अपना वचन पूरा कर सके। राजकीय कोष –

मंदिर पात्र से धन लेकर हवन करवाता है।

हवन कई दिन लगातार चलता है राजकोष खाली हो गया होता है।

राज ने धन देने से मनाही कर देता है।

 

जनता के पास जो भी था मंदिर को दान कर दिया था।

तो हवन की पूजा सामग्री के लिए धन कहां से आए तो।

अपने वादा की पूर्ति के लिए ब्राह्मण ने मूर्ति के पांव-हाथ-धड़

सब बेच डालें और 10 साल से भी ज्यादा के हवन की सामग्री इकट्ठा कर लिया।

और हवन 10 साल तक यूं ही चलता रहा जब तक लोग निराश हो चुके थे।

तथा उसके उस पूजा को देखकर भी भगवान प्रकट नहीं होते थे जिस पर लोगों ने अब धन देना

और ब्राह्मण का मान-सम्मान छोड़ दिया था।

तो भगवान की प्राप्ति के लालसा में वह वहीं पर प्रभु का नाम पुकारते – पुकारते भगवान के द्वार पहुंचता है।

पर वहां पर भी उसे भगवान के दर्शन नहीं होते।

तो यह दरबारियों से पूछता है, मैंने अपना संपूर्ण जीवन दे डाली, फिर भी भगवान के दर्शन नहीं हुए –

तो दान कैसे दूंगा।

तो दरबारी बोले- तु भगवान को दान देगा, अरे तुम भी उनके दान का ही अंश है।

 

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वैसे भी प्रभु यहां पर नहीं है। वह तो तु जिस राज्य में रहता था।

उसके एक मंदिर के पंडित के घर गए हैं।

जो कई सालों से भगवान की सेवा कर रहा है।

आज उसे तेरे मंदिर का पंडित घोषित किया गया है ।

ब्राह्मण का अहंकार और भभक उठा। उसने कहा, ” मैंने अपने संपूर्ण धन –

वैभव खर्चा कर दिया – मिट गया, भगवान को दान के लिए।

और वह सिर्फ उनको जल चढ़ाकर राज पंडित बन गया । यह बिल्कुल न्योचित है- बिल्कुल पाप कर्म है।

भगवान को ऐसा नहीं करना चाहिए।” उसके इस व्यवहार से कुपित होकर दरबारी उसे नर्क लोग में भेज देते हैं।

और उसको फिर कभी – भी भगवान के दर्शन नहीं हो पाते।

क्योंकि भगवान तो सेवा में व्यस्त थे – तो दान कैसे लेने जाते।

 

 

1. ये कैसी शर्म?👀👁️🤔

 

2. अर्थहीन 👀 सबसे बड़ा उत्तर? 🤔

 

3. क्या हम सब इंसान हैं? 🤔👀

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आत्मीय – राक्षस

forhindi 12 जून 2022 2 comments

 आत्मीय – राक्षस

 

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आत्मीय – राक्षस

 

 

हम सबके अंदर एक राक्षस रहता है। जो हरदम इस ताक में रहता है कि कोई देख तो नहीं रहा।

और जब पाता है एकांत तो निकल पड़ता है। हम को दबाने लगता है। हाथ नहीं है – उसके नहीं पैर।

पर फिर भी वह बहुत तेज जकड़ता है। ऐसे कि जैसे मार ही देगा और हम पर काबू कर लेगा।

 

और अधिकतर समय कर भी लेता है। लेकिन तब – तक ही ताकतवर रहता है –

जब तक उस एकांत को कोई भंग ना  करने आ -जाय।

भीड़ में खत्म हो जाता है यानी कि छुप जाता है। क्योंकि उस भीड़ में उसको देखने वाला जाते हैं।

यकीन मानिए आप उस बिन सिर – पैर वाले राक्षस पर तब-तक नहीं पा सकते।

जब तक आप खुद में भीड़ नहीं बन जाते। मेरा मतलब है उसको देखने वाला या मानने वाला कि राक्षस है।

वह अब मुझ पर हावी हो रहा है। क्योंकि वह राक्षस एकांत ( अनजाने – अनदेखे – अज्ञान ) में पनपता है

लेकिन जैसे ही उसे एहसास होता है कि किसी और की उपस्थिति (ज्ञान – एहसास और रोशनी ) की तो

वह अपने आप खत्म हो जाता है। इसलिए इस राक्षस  से लड़ने पर यह और ताकतवर हो जाता है।

इसको हराने का सिर्फ और सिर्फ एक मात्र यही तरीका है कि उसे समझा जाए।

या यह अपनाया जाए जाए कि वह हमारे अंदर है –  अब पनप रहा है।

क्योंकि वह रहस्यमी राक्षस है और रहस्य तब – तक ही रहता है।

जब तक उसे देख ना लिया जाए – जान ना लिया जाए। स्वीकार न कर लिया जाए।

 

👆

यहां मैंने जो भी लिखा है। वह सब अपने अनुभवों और मेरी आप – बीती का किस्सा है।

 

ऐसा नहीं है कि मैंने इसे खत्म कर दिया है लड़ाई चल रही है।

यह ध्यान रखना कि इस राक्षस को पूर्णता मिटाया नहीं  जा सकता है।

गुलाम बना सकते है – काबू कर सकते हैं क्योंकि यह कहीं बाहर नहीं हमारे अंदर ही रहता है।

जो कि बड़ा चतुर है – अनुभवी और दैत्य भी।

 

 

इसके अनुभव को मारने का सिर्फ एक ही कारगर हथियार है

जिसे अनुभूति कहते हैं और यह राक्षस उतना ही अधिक शक्तिशाली होता है

जितना अधिक आप इस पर जबरदस्ती काबू करना चाहते हैं

भौतिक चीजें तो कंट्रोल हो जाती है – पर यह भौतिक नहीं है आत्मिक है (आत्मा नहीं कहा) ।

भौतिक चीजों को आप जबरदस्ती कंट्रोल कर सकते हो  –

आत्मिक चीजों को खत्म करने के लिए आत्मीयता की जरूरत होती है।

इस राक्षस का आहार तम (गलत संगत, अनाप-शनाप खाना, कुछ भी देखना,

खुद को ना जान ना इसको छुपाना – नहीं मानना कि वह मुझ में है) है।

जैसे स्त्रियों को देखकर पुरुषों का विचलित होना आम बात है या स्त्रियों का पुरूषों को देखकर।

उतना ही साधारण यह है। जब यह तम को देखता है – एकांत को पाता है – निकल पड़ता है।

 

 

और दबाने लगता है। इसलिए आप कभी भी एकांत ना हो खुद में हो क्योंकि अंततः आपको ही इसे समाप्त करना है।

बाहर वालों को यह तब दिखेगा जब यह आप पर पूर्ण रुप से अधिकार कर लिया होगा।

इसके समाप्ति के लिए आपको इसके आहार तम को कम करना होगा।

इसके लिए कृष्ण की जरूरत होगी – राम की जरूरत होगी।

क्योंकि यह भगवान तभी बने जब यह राक्षस इनके गुलाम हुए।

महादेव महाकाल है क्योंकि राक्षस भी उनके अधीन है।

और प्रभु को पाने का सरल उपाय है विद्या – ग्रहण – सत्संगति – खुद को जानना – अच्छे कर्म करना ।

यह जंग आसान नहीं होगा – ना ही जल्द खत्म होगा। पर यकीन मानिए यह आप से  है – आप इससे नहीं है।

आप इसको कमजोर कर सकते हैं बस जरूरत है तो आत्मज्ञान – आत्मसमर्पण की और अनुभूति की।

और यह स्वीकार करने की हां यह मुझ में है।और यह मेरे लिए खतरा बन सकता है।

 

 

 

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भगवान की तरफ से – मुंह फेर लेने से, भगवान कमजोर नहीं होते

forhindi 6 जून 2022 0 comment

‌‌ ‌‌                                                               भ‌‌गवान कमजोर नहीं होते

 

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चांद-तारे थे। मनमोहक वातावरण था। मैं लिखने का आदि – कुछ लिखने के लिए बेताब था।

कुछ कि तलाश में मैंने बहुत कुछ लिखें – पर उनमें मुझे वो तपिश ना मिलीं – जो मुझे शांत कर सके।

मैं कुछ बड़ा लिखना चाहता था। कुछ ऐसा जिससे जीवन में बदलाव हो।

इंसान अपने आप को और स्वाभाविक तरीके से जान – समझ सके।

मैं जब नहीं लिखता था तो पढ़ता था – और अभी भी पढ़ता हूं। एक कहानी में या कहीं पढ़ा था

सबकुछ ईश्वर से व्याप्त है और ईश्वर से ही शुरुआत और अंत है।

यह लाइंस मुझे काफी प्रभावित किए । मैं ठीक-ठाक नहीं बता सकता – मैं लिखने में कैसे आया।

पर मैं कहीं लिखा था। मैं प्रकृति की उन भावनाओं को व्यक्त करता हूं –

जो प्रकृति अपने-आप नहीं व्यक्त कर सकती। तो वह मेरे द्वारा अपने – आप को अभिव्यक्त करती है।

यानी कि बड़ा साफ-साफ आशय है मेरी है लिखनी – सिर्फ मेरी लिखावट मात्र है।

 

 

संदेश प्रभु से – मां सरस्वती से आता है। तो वही मैं उनके मंदिर की तरफ आस लगाए बैठा था।

कि कुछ मिले – कहीं से शुरुआत हो – कोई संदेश मिले। संदेश मिले बहुत मिले पर मैं संतुष्ट नहीं हुआ।

आश लगाए मैं कभी यहां – कभी वहां-कभी  बैठता – कभी सोता।

पर ना मुझे यहां शांति मिलती – ना वहां – ना बैठे  – ना सोते। शरीर बेचैन था।

फोन में डुबाया मन तो कुछ अच्छा ढूंढते – ढूंढते मन ऊब गया।

कापी बगल में पड़ी थी – तो मुझसे मेरा मन रूठ गया। सच कहूं तो मैं पूरा बेचैन हो जाता हूं।

जब कुछ लिखना चाहूं पर लिख ना पाऊं। सब कुछ  रहता है। खेलता – कूदता, सोता – बैठता।

सच कहूं तो शरीर बेचैन हो जाता है – जब कुछ लिखना चाहूं – पर लिख ना पाऊं तो।

सब कुछ ठीक रहता है खेलता-कूदता,  सोता – बैठता पर सच कहूं तो बीमार रहता हूं।

जब तक वह जो कागज पर उकेड़ना चाहूं पर ना उकेड़ पाऊं तो।

 

दुआ मांगता कुछ मिल जाए हाथ जोड़ूं या ना जोडू। निगाहें उनकी तरफ तब तक लगी रहती।

जब – तक वह मलाल दिल का कागज पर ना उतर जाए। आज मैं उतना ही परेशान था –

उतना ही बेताब था। सुबह से शाम हो गया था। मन – शरीर सब शांत ऊपर से – पर अंदर से तूफान था।

ना शांति से बैठ पाता था  – ना चैन से सो पाता था ।उदवेगना- बेचैनी- सारे उस स्तर पर मुझमें थे –

जितना एक गंभीर बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति का मन लगने नहीं देता।

ठीक वैसे ही मेरी हालत होती है। और थी। मत पूछो मैं कितना सिद्धत से आस लगाए बैठा था

उनकी तरफ वरदान के लिए। मैं इतना थक गया था – परेशान –

उत्तेजित भगवान की मंदिर की दिशा में मुंह किए लेट कर फोन चला रहा था।

कि अचानक ना- जाने क्यों मैंने मंदिर की तरफ से मुंह फेर लिया।

यह करते ही मन में ख्याल आया की भगवान की

 

 

भगवान की तरफ से – मुंह फेर लेने से, भगवान कमजोर नहीं होते !

मैं हंसा-पछताया-रोया कुछ बिना आंसूओं के।

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भगवान की तरफ से मुंह मोड़कर मैं कमजोर हो गया।

तब समझ में आया भगवान :- भूमि_अग्नि-वायु-अकाश और नीर से हम बने हैं।

वह हमसे नहीं। तो हमारे होने या ना होने से कोई फर्क पड़ेगा नहीं।

चूंकि वह तब भी थे जब हम नहीं थे बल्कि उनकी तरफ से मुंह मोड़ लेने से हम और बेचारे हो जाते हैं।

 

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2. तुम्हारा वो आखिरी खत

3. मेरी मां कि एक सिख – आप लोगों के नाम

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भ‌‌गवान कमजोर नहीं होते

 

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भगवान‌ का खत – इंसानो के नाम

forhindi 25 मई 2022 0 comment

 भगवान‌ का खत – इंसानो के नाम

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अकाल पड़ा हुआ था और खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था।

अकाल को आए 2 महीने से ऊपर हो गए थे। और अब ऊपर से बाढ़ आने वाली थी।

एक तो खाने को कुछ ना था। और अब रहने के लिए जगह भी कम होने जा रही थी।

भूख से तडप-तड़प के कई जाने जा चुकी थी। लोग पहले से ही भयभीत थे।

और अब और ज्यादा चिंता ग्रस्त हो गए थे। उनकी रातों की नींद उड़ गई थी।

दिन का तो कहना ही क्या ? बस जैसे-तैसे कट रही थी।

 

लेकिन जैसी ही बाढ़ की खबर आई लोग पहले से ही पलायन कर चुके थे।

जो बचे थे वह फस गए थे। तो भगवान को बुरा-भला कहने लगे।

मंदिर को बंद कर दी गई  पूजा – अर्चना सब बंद क्योंकि उनका भरोसा उठ गया था ।

क्योंकि, हुआ यह था कि जब अकाल को पड़े दस दिन से ज्यादा हुए थे।

तो लोगों ने वहां के जिनके बारे में कहा जाता था, कि भगवान से जुड़े हुए हैं।

भगवान को एक खत लिखा – दरासल गांव में कुछ भी आपदा आती थी।

तो गांव के लोग उस आपदा के खत्म हो जाने की विनती।

 

 भगवान से खत लिखकर करते थे। जिससे उनकी अपदाएं भी जल्द से जल्द खत्म हो जाती थी।

लेकिन इस बार अकाल के 15 दिन बाद जब खत लिखा लेकिन दो महीने तक वह अकाल खत्म नहीं हुआ।

लोग भगवान की पूजा-अर्चना और जोर-शोर से करने लगे थे , ताकि वो भगवान को मना सके।

उपवास रखा गया – लंगर हुए। पर अकाल खत्म ना हुआ – उल्टा लगता था

जैसे शिव ने तिसरी आंख खोल ली हो। लोगों ने कई चिट्ठियां भेजी, खून से लिखी हुई चिट्ठियां भी भेजी।

पर अकाल खत्म होने कि बजाय  साथ-साथ अब बाढ़ भी आने वाली थी।

लोगों का विश्वास उठ गया था,  भगवान पर से। और वो भगवान की पूजा-अर्चना बंद कर।

 

अपने दशा के लिए कोसने लगे। फिर भी बढ़ा आई। और ऐसी आई की पहले इतना कभी  नहीं देखा था,

गांव वालों ने। गांव के लोग काफी परेशान थे – अब खाने के लिए मछली मिल जाती थी।

पर जलाय क्या ? परेशानी एक कम हुई तो दूसरी आ गई ।गांव वाले काफी परेशान और दुखी थे।

सरकारी सेवाओं के गांव को मिल पाना भी आसान नहीं होता था

क्योंकि उनका क्षेत्र काफी सूदूर और दुर्गम इलाकों में पड़ता था। लोग काफी डरे हुए और भयभीत थे।

 

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 जिसस  फिर भगवान से विनती करने लगे। कोसने लगो। कि प्रभु क्या पाप हो गई?

हम पर दया क्यों नहीं कर रहे हैं ? क्या आपकी आंखें नहीं है ?

क्या आपको हमारी दुर्दशा नहीं दिख रही? पर बाढ़ के पानी सूखने में लगे फिर

2 महीने इन 4 महीनों में लोग ना जाने क्या से क्या कर गए थे।

कितना कुछ भगवान को सुना गए थे। बाढ़ सूखा तो दलदल था।

यानी की समस्या टोटल लबा-लब था। अब उस समस्या को लेकर लोग भगवान को कोसने लगे।

जरा भी रहम नहीं आ रहा है – हम जैसे गरीबों के साथ मजाक करता है।

लोग कहते हैं, कि तू हमारा कुछ नहीं होने देगा।

 

और तू है कि सिर्फ एक के बाद एक समस्याएं देते जा रहा है।

पर कुछ दिनों में वह दलदल भी सूख गया। वापस गांव में खुशहाली आई।

बीज नहीं थे तो शहर से लाए गए खेती शुरू हुई ।

खेती हुई तो पूर्व सभी सालों से ज्यादा और अचृछी। लोग खुश थे -‌

कि उनके दर्द खत्म हो गए हैं। जब उनका फसल पककर तैयार थे कटने को –

तो ओले-वृष्टि और भारी वर्षा ने फसलों को तबाह कर दिया।

लोग अब भगवान से काफी नाराज हो गए थे। गाली छोड़ो – फांसी लगा रहे थे।

लोगों को लग रहा था कि भगवान कुछ नहीं होता। होता तो वह उनके दर्द को नहीं समझता।

लेकिन फिर भी कैसे भी ये पल भी कटे जैसे-तैसे रोते-सोते ।

 

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और फिर कुछ महीने बाद बीज बोए गए। खेती की गई।

क्योंकि किसान थे और खेती ना करते तो कब – तक सरकार से अगल – बगल से मांग – मांग कर खाते।

और उसके लिए भी तो पैसे चाहिए। फिर जैसे – तैसे खेती शुरू हुई और इस बार पिछले वाली फसल से

भी ज्यादा फसल हुई थी। इतनी की खा भी ली-  बेच भी ली और फिर भी काफी बच गई।

तो जब उनको(फसलों को) काटा जा रहा था। भगवान की मंदिर खोली गई।

पूजा -‌वंदना के लिए। थालियां सजाई गई। सारे गांव वाले मंदिर, भगवान दर्शन को पहुंचे थे।

तो वहां एक खत पड़ा हुआ था। बहुत ही अनमोल खत और नयाब।

जिसे देखते ही लोगों ने पहचान लिया कि यह खत हो ना हो भगवान की ही है।

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पूजा के बाद वह खत पढ़ा गया। उसमें कुछ वाक्य लिखे हुआ था । जो कुछ इस प्रकार है-

” जिस प्रकार तुम किसान अपने खेत को कब जोतना है – कब बोना है – कब सिचना है –

और कब काटना है। जानते हो। ठीक उसी तरह यह पूर्ण संसार  – तुम सब मेरी कृषि हो।

मेरी फसलें हो और मैं इसका इसका कृषक।

मैं जानता हूं कि इसका अच्छे से देखभाल कैसे करते हैं।

जिस प्रकार कीड़ा लगने पर आप दवाइयों का छिड़काव करते हो –

जो जहरीली होती है। ठीक उसी प्रकार कृषक के तौर पर

मैं अपने फसलों का ध्यान रखता हूं। तो मुझे मत बताओ मुझे क्या करना है!

मैं किसान हूं। और मुझे अपनी फसलों का आपसे ज्यादा ख्याल है।

 

 दूसरी बात :- 

जिस प्रकार से आपकी खेती खत्म हो गई। फिर बाढ़ की वजह से हो गई।

फिर खेती हुई और फिर भारी वर्षा के कारण वह भी खत्म हो गई थी।

इसी प्रकार बार – बार आप की फसलें खत्म होने के बाद भी

आपका फिर जमीन पर कृषि करना – भरोसा करना ही भगवान (विश्वास) है।

विश्वास का मार्ग कभी सुगम नहीं होता। क्योंकि विश्वास सिर्फ वही पनपता है –

जहां पर दुर्गम संघर्ष होता है। वहां नहीं जहां सुगम मार्ग होता है।

विश्वास के मार्ग में तूफान ना आए तो विश्वास कितना ताकतवर है पता नहीं चलता।

इसी कारण मैं भगवान हूं क्योंकि मैं आपके द्वारा पूज्य-दूरज्य होने के बावजूद।

मुझ पर से भरोसा उठ जाने के बाद भी – विपत्ति में मुझ पर भरोसा करना मुझसे ही गुहार करना।

मुझे भगवान बनाता हैं। विश्वास गिरा सकता हैं पर पकड़े रखिए क्योंकि अंत तक जीने की साहस यही देता है।

 

और तिसरी बात :- 

मैंने आपके खत को पढ़ा था और उससे पहले से ही आपकी समस्या को हल कर रहा था।

वह समस्या को सिर्फ खत्म नहीं जड़ से खत्म करना था।

कि आप लोगों को जल्दी-जल्दी उन समस्याओं का सामना ना करना पड़े और

जड़ से सावधान करने के लिए जड़ तक जाना पड़ता है। और वह जल्द नहीं होता।

वह वक्त लेता है। क्योंकि समस्या बहुत विकल – हो जाती है समय के साथ।

इसीलिए उनको खत्म करने के लिए समय चाहिए होता है।

आपको समस्याओं में देखकर मैं ज्यादा दुखी होता हूं।

आपका यूं मर जाना – समस्या से डर कर जबरन मेरे अंश‌ को मारना है।

कृपया ऐसा ना करें – समस्याओं का आना-जाना लगा रहता है।

लेकिन आप बार-बार नहीं आते।

 

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सर्व भवन्तु सुखिना !

 

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⏱️घड़ी टूटा है – वक्त नहीं

forhindi 10 मई 2022 0 comment

⏱️ घड़ी टूटा है – समय नही

 

पुरस्कार के रूप में सौ ₹ मिले थे। जिस पर अध्यापक ने कहा था,

” जिन-जिन बच्चों को पुरस्कार के रुप में रुपए मिला है। वह उसका कल कुछ ऐसा खरीद कर लाएंगे जो लंबा चले और काम की हो।”

यह ईनाम मुझे कक्षा के तीसरे नंबर पर आने के लिए मिला था

बाकी जो सेकंड आई थी उसके ₹200 और फर्स्ट को ₹500 मिला था।

यह मेरी पांचवी कक्षा की वह कहानी है – जो मुझे इतने सालों बाद जब स्कूल से नाता टूट चुका है –

तब कुछ सिखाना चाहती है:-

 

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तो हुआ यह  कि मैं रूपय लेकर घर आया मां- पिता-जी को बताया,

तो शाबाशी मिली और मां के सुझाव से पिता-जी बाजार से एक सुंदर घड़ी ले आय सौ ₹ की।

घड़ी सुंदर थी। उसमें फूल के चित्र बने हुए थे। लाल लाल और सफेद का सम्मिश्रण।

मेरे कमाई की वह पहली चीज थी। जिसे देख ना सिर्फ मैं बल्कि मेरे मां-बाबा भी काफी प्रसन्नचित दिखे।

और मन किया कि ऐसे ही आगे बढूंगा और इस घड़ी की टिक-टिक की तरह ही सदैव बिना

रुके-डरे हर घड़ी चलता रहूंगा।

 

सुबह हुई स्कूल खत्म होने के बाद जहां मुझे पुरस्कार मिला था

उस ट्यूशन को अपने सहपाठियों के साथ उमंग में हर्षोल्लित अपने  दीवार घड़ी को

अध्यापक के पूछने पर दिखाने को गाया।

वहु जल्दी पहुंच गए थे। अमूमन जैसे हर रोज पहुंचते थे। और लंच करके अध्यापक का इंतजार करने लगे ।

कि तभी मेरे सहपाठी मेरा और बाकी जिन्हें पुरस्कार मिला था, उनके पुरस्कार देखने लगो।

बाकियों ने क्या पुरस्कार राय थे । यह मेरी स्मृति में नहीं है क्योंकि मेरी

दीवार घड़ी की खूबसूरती में भंग पड़ गया था।

हुआ यह था कि सब एक – दूसरे का गिफ्ट देखने में को बेचैन थे –

मैं अभी खाना ही खा रहा था शायद, कि जब अंदर आता हूं।

भोजन करके तो पाता हूं मेरे एक सहपाठी से गलती से मेरी घड़ी टूट गई है।

यह देख मैं काफी भावुक हो गया – पांचवी कक्षा में था – ज्यादा समझ नहीं थी।

शायद रोने लगा था या नहीं पता नहीं पर नाराज काफी हो गया था।

मेरा मन नहीं कर रहा था किसी से बात करने का।

इस घटना के थोड़ी देर बाद मास्टर साहब आए फर्स्ट –

सेकंड का गिफ्ट देखने के बाद जब मेरे से दिखाने को बोला तो मैं

नाराज होकर अध्यापक को टूटी हुई घड़ी कैसे भी दिखाता देता हूं

और  उनके पूछने पर सारी  राम कहानी नाराजगी में बता देता हूं।

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तो अध्यापक बोलते हैं

”  कोई बात नहीं – नई खरीद लेना – नहीं तो इस पर नया शीशा लगवा लेना।”

मेरी घड़ी टूट चुकी थी। मेरा पढ़ने का मन बिल्कुल भी नहीं कर रहा था।

अध्यापक पढ़ा रहे थे – समय बीत रहा था।

उन्होंने जब  मुझे देखा कि मेरा पढ़ने में मन नहीं लग रहा है तो बोले, ” क्या हुआ ?

घड़ी ही तो है – नई आ जाएगी। अभी पढ़ लो क्योंकि यह पाठ मैं दोबारा इतनी सावधानी से नहीं पढ़ाऊंगा

और फिर अगले टेस्ट में अगली बार थर्ड की जगह फर्स्ट आना और

इससे अच्छी ईनाम घड़ी खरीद के ले आना।”

मैं अध्यापक के बात उस उम्र में कितना समझ पाया था। यह मुझे पता नहीं।

बस इतना पता है कि शाम को घर लौटकर – मां-बाबा के पूछने पर घड़ी

दिखाई तो मेरे साथ-साथ वो भी नाराज हो गया थे।

पर कुछ ही दिन में पिता-जी फिर से नई शीशा उस घड़ी में लगवा दिए थे।

जिससे वो घड़ी फिर काफी प्यारी और आकर्षक लगने लगी।

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घड़ी टूट सकती है – पर वक्त नहीं, जीना इसी पल को कहते हैं। जो कल जिएंगे – उसे उम्मीद कहते हैं। और उम्मीद आज के कार्यों से बनती है।

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1.अंधेरों का उजियाला (Hindi Edition) Kindle Edition
2.जिंदगी – पाप और कर्म (Hindi Edition) Kindle Edition
3.भगवान और इंसान:- 5 कहानियां : शिक्षाप्रद जो हर किसी को एक बार अवश्य पढ़नी चाहिए (Hindi Edition) Kindle Edition

 

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⏱️ घड़ी टूटा है – समय नही

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परिस्थितियां और हम

forhindi 1 मई 2022 1 comment

परिस्थितियां और हम

‌          परिस्थितियों का पक्का अनुमान रहे – 

             हम इंसान है ये ध्यान रहे !

 

एक पंडित था, जो कि काफी ज्यादा लोकप्रिय था। उसके कुछ शिष्य थे – जो उससे शिक्षा प्राप्त कर रहे थे।

तो क्या होता कि, गुरुकुल का एक नियम था – जिसके अनुसार एक निश्चित समय पर शिक्षा प्राप्ति के बाद

सभी शिष्यों को दक्षिणा लेने को जाना होता था। तो इस बार कुछ शिष्य अपने आश्रम के समीप स्थित राज्य के राजा के वहाँ गय,

इस उद्देश्य से कि एक बार राजा जी से माँग ले-तो रोज – रोज माँगने की नौबत ही नहीं आयेगी।

तो वो शिष्य निकल पड़े राजमहल की तरफा। राजमहल दो घंटे की दूरी पर था ।

आज से और आजम से राजमहल तक पहुंच कई रास्ते थे।और आश्रम से राजमहल पहुंचने तक के कई रास्ते थे।

उनमें से अधिकतर दो घंटे के आस-पास ही पहुंचाते। मगर एक रास्ता था – जंगल से होकर ।

जिससे राजमहल की दो घंटे की दूरी – डेठ घंटे में ही पूरी की जा सकती थी।

पर वो रास्ता अच्छा नहीं था इन्होंने – सुन रखा था। इसलिए उस रास्ते से कोई आता -जाता  नहीं था।

और जो कभी आते-जाते थे। बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़ता था – उनको ।

जो उस जंगलों से भी आय थे । वो बताते थे कि वहाँ पर एक गौंग रहता है।

पर यह काकी साल पहले की बात थी – अब उस जंगल से आना-जान सुगम हो गया था।

कुछ लकड़हारे उसी जंगल में रहने लगो थे।

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रास्ता

 क्योंकि जो गैंग थी – वो राजा के डर  से कहीं और चली गईं थी- ऐसा सुनने में आया था।

तभी-से वहां लकड़हारे रहने लगे थे। तो जो शिष्य थे – वो थोड़े निडर थे।

निकल गय उसी रास्ते – से राजा जी के के पास जल्द से जल्द पहुँचने के लिए।

जाते समय उन्हें कोई तकलीफ नहीं हुई। लकड़हारों ने उन्हें पानी-वानी भी पिलाया  और

बातों- बातों में उन्हें पता चला कि वे आश्रम से आय शिष्य है – जो राजा जी के पास जा रहे हैं –

भिक्षा मांगने। लकड़हारों ने उनकी और मदद की  राजमहल जल्दी-से-जल्दी पहुंचने में ।

ये राजमहल पहुंचे। राजा से भीछा ली और यह सोचते-बतियाते खुशी से आ रहे थे।

 

 

कि हम तो जय हनुमान ने गए थे राजा साहब कितने अच्छे हैं इतने सारे अन्नों के साथ सोने-जवाहरात भी दे दिया है।

अब हमें मांगने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी और गुरुदेव भी हमारी बहादुरी से खुश होकर।

हमें इनाम देंगे। पर वो जब गुरुकुल पहुंचे तो – काफी डरे हुए और खाली हाथ लौटे थे।

जब गुरु जी ने पूछा, ” क्यों भाई आज तुम लोगों को किसी ने डराया है क्या ?

और भिक्षा भी नहीं दिया क्या ? और तुम लोगों  की भिक्षा पात्र पोटली कहां है,

जो तुम लोगों के शरीर से लटकती रहती थी?” तो उन शिष्यों ने डरते-डरते सारी घटना सुना दी कि गुरुदेव हम राजा के पास गए थे।

भिक्षा प्राप्त करने। जल्दी जाने के चक्कर में हमने जंगल वाला रास्ता पकड़ लिया।

जाते वक्त तो कुछ नहीं हुआ बल्कि उन लकड़हारों ने मदद भी की थी।

आते वक्त उन्होंने हमें पानी पिलाकर बेहोश करके हमारा सारा धन समेत –

भीक्षा भी उन्होंने ले -लिया।

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और हमें अचेत अवस्था में वही जंगल में ही छोड़ दिया। जब चेतना आई तो – पाया कि अंधेरा होने लगा है

और हम लोग भटक गए थे, जंगल में कहीं। पर जैसे-तैसे हम लोग वहां उस जंगल से बच के आए।

गुरुदेव ने समझाया कि, वह जो लकड़हारे – हैं असल में वही वह गैंग वाले हैं ।

और जिन्हें वो उस जंगल से आने-जाने देते हैं वो उनके ही संगी-साथी होते हैं।

और या वो लोग जिनके पास ज्यादा कुछ नहीं होता है।

पर तुम लोगों ने मुझे बिना बताए राजा के पास गए और वह भी सोना-चांदी मांगने ।

इसकी मैं – तुम लोगों की अवश्य सजा देता पर तुम लोग पहले ही  सजा पा चुके हो – तो मैं क्या दूं!

 

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1.हाथ जोड़ ली – और शक्ति छोड दी : समझ ज़रूरी है! (Hindi Edition) Kindle Edition
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बदनाम

forhindi 19 अप्रैल 2022 0 comment

बदनाम

 

हमारे घर पर पंद्रह-बीस किलो गेहूँ आय थे। तो माँ ने उन्हें धो-के छत्त पर पसार दिया-सुखने के लिए और

मुझे आदेश मिला कि यही बैठ के इन गेहूंओ की रखवाली कर।

माँ का आदेश था तो टाल कैसे सकते थे।

ना – चाहते हुए भी बैठ गए – गेहूंओ की रखवाली में । पर  पूरा वक्त, कौन बैठता है –

इतना धीरज तो था नही मुझमे।

तो कुछ देर नीचे आकर पानी-वानी पी लिया और थोड़ी देर बैठ के सुस्ताने लगा

कि अचानक माँ चिल्लाई कि “गेहूँ कौन देखेगा।

सारा गेहूँ तो कबूतर खा-गय होंगो । तुझे एक काम दिया था – वो भी सही-से नहीं होता निकम्में कहीं का !

जल्दी भाग के जा ऊपर!” आपको जैसे   पता ही-है – माँ का आदेश टाल नहीं सकता।

ना चाहते हुए भी भाग के गया तो देखा- पार्टी चल रही थी- कबूतरों की-एक – दो नहीं, दस-पंद्रह थे।

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पार्टी

 

और ऐसा लगा कि उनमें डर नाम की कोई चीज नही है। वो मुझे देख के भी नहीं भागे।

तो मुझे गेहूंओ के और पास जाना पड़ा। और मुझे उनके पास जाते

देख वो ऐसे भागे जैसे गधे के सर से सिंग।

वो मेरे  वहाँ पहुँचने पर भाग तो गाय पर ज्यादा दूर नहीं ।

मैंने कहा ना ” उनके दिल में डर नही था।

कोई छत के छज्जों पर बैठ गय – कोई टावर पर- तो कोई जहाँ जगह मिला वहाँ बैठ गया ।

और उन्हें देखकर मैं ! छत पर ही छायाँ ढूँढकर के बैठ गया – गेहूँओं से कुछ दूरी पर ।

और वो कुछ देर चुपचाप बैठे रहे और जब देखा मैं वहाँ पास चुपचाप बैठा हूँ ।

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बैठ-गय

 

तो गेहूं के पास से आकर वापस बैठ गए। “शी-शी -हुड़-हुड़” मैंने किया

पर इतने से वह सिर्फ पलक छपकाने वाले थे डर के भागने वाले नहीं।

तो फिर मुझे दो-चार पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े उनकी तरफ फेंकने पड़े।

जिससे हड़बड़ा कर वो काफी दूर भाग गए। पर वो तुलसीदास साहब कह गए हैं-

ना कि पेट की आग बड़वाॎगि्न से भी बड़ी होती है। यानी कि समुद्र

की आग से भी बड़ी पेट की आग होती है।

और जब इतने बड़े रचयिता ने लिखा है तो कुछ सोच कर ही लिखा होगा।

 

सोच गलत कह दिया अनुभूति और अनुभव से लिखा होगा। और यह बात हर किसी पर लागू होती है

चाहे उसके पास उदर हो या ना हो जैसे हम इंसान और वो समुद्र देख लो।

है बहुत विशाल पर इंसान को और-और-और चाहिए और समुद्र को जमीन।

और ये तो फिर कबूतर थे। वह भी जो इंसानी बस्ती में रहते हैं – आ रहे हैं।

जिनको इतनी मुश्किल से  एक-एक अन्न का दाना मिलता है

और  आज उनको दानों का भंडार मिल गया था- तो कैसे हटते।

वो डर से दूर थे पर भागे नहीं थे। और मैं भी उनके डर से वहीं बैठा था।

इस प्रकार वो मेरे दुश्मन थे और मैं उनके। 

 

पर कुछ रियासतों तक उनके जान को जोखिम में रखकर मेरे वहां  बैठने के बावजूद वहां गेंहू के पास आकर,

दाना चुगने की कोशिश करने से प्रभावित होकर जो दाने उन्होंने मेरे अनुपस्थिति में

बिछाई हुई पट्टी के नीचे बिखेर दिए थे,

उन्हें चुगने का आदेश या कहें कि स्वतंत्रता दे-दी थी- मैंने ।

इस प्रकार एक कबूतर के साहस करने से बाकी भी आ-गए।

जब-तक वो नीचे की चुग रहे थे – तब तक मैं शांत था।

लेकिन जैसे ही पट्टी पर हमला करते – मैं हिंसात्मक हो जाता।

जिससे वो भाग खड़े होते- इतने पर भी मैं उनका और वो छोटे उदर वाले मेरे दुश्मन थे।

मैं उनकी नज़रों में बुरा था और वो मेरे।

 

पर मैं ना बुरा था – ना वो। पेट दोनों की, भूख दोनों कि। हम कमाते हैं-

वह काफी मुश्किल से खाते हैं।

संघर्ष बराबर है। पर वह बेजुबान है, यह समझ कुछ दाने और

मैंने फेंक दिया अपने गेहूंओ से दूर उनके लिए,

पर वह बड़े वाले पर ही नजरे गर आए थे। जो कि स्वाभाविक है।

मैं अपनी पेट के लिए उन्हें वह धो-के पसारा था

और वह वहां उन्हें देखकर पसरे आ रहे थे। गलत हम दोनों गलत नहीं थे – सिवाय एक-दूसरे की नजरों के।

ऐसा ही कभी-कभार या सामान्यतः यह हमारे साथ होता है। मैं यहां इंसानो की इंसानों के द्वारा हुए गलत-

सही की बात कर रहा हूं।

वह भी वह वाले जिसमें आदमी दूसरे आदमी की नजरों में गलत होता है। हकीकत तो कुछ और होती है।

 

 

पर हमें लगता है कि उसने हमारे साथ बहुत गलत किया और उसे लगता  है

कि उसने सिर्फ वही किया जो करना चाहिए था।

और यह हर किसी के साथ होता है। जिंदगी में। तो बस यह कहना चाहूंगा कि

आप अपना पेट देखें वह जरूरी है

बस औरों की पेट पर लात ना मारे। अपनी हक रक्षा करें चाहे जैसे भी

औरों कि हकों को ना मारे।

फिर उसके बाद भले ही गुंडे – बदमाश समझे जाओ औरों की कहानियों में

पर आप सच में खुश रहोगे अंदर से।

जो कि इस बह्राड  में सबसे बड़ी चीज है। बस आप अपने आप को सही सिद्ध करने की कभी-

कोशिश करने मत लग जाना

बस कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर।

 

क्योंकि कभी-कभी औरों के नजरों में हमें बुरा बनना पड़ता है:- जिससे कि वो नायक/हीरों बन पाए! 

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अपने होते नहीं है – बल्कि बनाय जाते हैं

forhindi 16 अप्रैल 2022 0 comment

अपने बनाय जाते हैं 

 

 

चार-पाँच दिन पहले –

निकला था यूँ ही – कई दिनों बाद पार्क घूमने |

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किसी के साथ नहीं अकेले। शाम का वक्त-सूरज ढलने को था। मौसम मे अजीब-सी  पर मनमोहक रवानी थी।

पार्क घर से ज्यादा दूर नहीं था। बीस मिनट का पैदल रास्ता था- वो मस्ती के आलम में कट गया ।

कब पार्क में पहुँचा इसका अंदाज उस बुढ़े हो चले चेहरे को देखकर पता चला जो झुर्रियों के संग शायद मुझे देख के मुस्कुरा रहे थे।

शायद, इसलिए क्योंकि मुझे नहीं पता था कि वो मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे या – पहले से ही ।

पर उनकी मुस्कान बड़ी मनमोहक थी – वातावरण की तरह। मनमोहक थी – तो मन तो मोहना ही था –

मैं इतना बच-बच के रहने वाला – ना जाने कैसे बोल पड़ा पड़ा – “नमस्ते अंकल”।

वो मुझे और गौर से देखकर उस मनमोहक-सी मुस्कान के साथ “नमस्ते बेटा।”

बस बात यहां खत्म हुई। वो वॉक कर रहे थे और मैं घूमने पार्क गया था।

बस रास्ते में आमने-सामने मिल गय थे। रास्ता था और हम यात्री, एक-दूसरे को खुशी बांटकर आगो  निकल गय।

फिर अगले दिन ना-जाने मैं किस रस में डूबे पार्क गया।और फिर वही अंकल-

 

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और फिर वही राम-राम यानिकि नमस्ते। पर इस बार वो अंकल अकेले एक बैंच पर बैठे थे ।

तो उन्होंने ईशारे से मुझे अपनी ओर बुलाया ।यूं तो मां ने बचपन में क शई बार बता चुकी थी,

कि किसी भी अंजान से नहीं बोलना पर मैं थोड़ा बड़ा हो गया था- और  उससे भी बड़ी बात –

उनकी वो मनमोहक मुस्कान ने मुझे उनकी ओर अपने-आप धक्का दे-दिया। मैं गया।

“हाँ !

नमस्ते अंकल ।”

क्या हुआ”

“नमस्ते बेटा”- फिर से !

उन्होंने पूछा – “तुम्हारा नाम क्या है?”

मैं:-  “अंकल, वरून ।”

वो:- “क्या करते हो?”

मैं:- “अंकल अभी परीक्षा के दिन चल रहे है।”

वो: -“अच्छा । कौन- सी कक्षा की ?

मैं:- “बारहवी अंकल”।

वो:- “कितने पूरे हो चुके हैं ?

मैं:-“अंकल तीन”।

वो:-“कितने बाकि है?

मैं:- बस दो और रह रहे हैं।

वो:- अगल पेपर किस विषय का है ।

मैं:- ‘हिस्ट्री का’।

वो:- “फिर तो इस वक्त तुम्हें- अपनी पढ़ाई पर ध्यान देनी चाहिए। अच्छा खैर, तुम्हें हिस्ट्री बोरिंग नहीं लगती?”

मैं:- नहीं अंकल, बल्कि बड़ा अच्छा लगता है। और रही तैयारी कि बात यानिकि पढ़ाई की बात-तो दिन-भर वहीं करते हैं।

 

 और रही पढ़ाई की बात तो दिन-भर वहीं करते हैं। बस थोड़ा मन करता है घूम आने को कुछ पल  खुली हवा में, इसलिए आ-जाता हूं।

 

वो:- “पेपर के बाद क्या सोचा है?”

 

मैं:-‘सोच रहा हूँ । आई. टी. आई कर लूं।  मेरे कक्षा के अधिक बच्चे वही ले रहे है । ”

वो:- हूँ। अच्छा है! पर औरों के कारण क्यों? तुम्हारा मन है – कि नही।

 

मैं:-“वो अंकल मेरा भी मन है।” बस इसलिए।

 

वो:-अगर तुम्हारा भी मन है -तो ठीक है। वर्ना बस इसलिए मत करना कि बाकि कर रहे है ।

मैं:- ठीक है अंकल।  आपकी बात हमेशा याद रखूंगा।”अच्छा मैं थोडा़ अब पार्क के चक्कर  लगा – के आता हूं।

जब तक आप बैठे रहिए। फिर मिलते है। बाय-बाय।

वो:- “अच्छा ठीक है।”

 

मैं वहां से छूटते ही पार्क के चक्कर लगाने – लगा। पार्क काफी बड़ा था- और मैं अकेले तो खुद-से बातें होने लगी।

ना जाने अनयासा मेरे मन में कहाँ से ख्याल आया ? कि मैं जो इतना बच-बच के रहता हूं- मैं जो ज्यादातर अकेले ही रहता है।

इसलिए, पार्क भी अकेले आया। वो बंदा कैसे इतने-सारे और बूढ़े अंकलों के बीच मैं सिर्फ उन्हीं के पास क्यों गया ?

 

और इसी की जवाब खोजते-खोजते मेरा पार्क का चक्कर पूरा हुआ  और मैं वहां उनके पास आकर।

 

अच्छा अब मैं चलता हूँ।” मैं मुस्कुरा रहा था और वो भी। आज – से पहले में इतनी देर किसी भी अजनबी से बात नहीं कि थी।

पर वो मुझे बात करते वक्त अजनबी नही लगो ।

और इस प्रकार उनकी और मेरी एक नया संबंध बन गया खून  का नहीं था पर फिर भी, एक दोस्त के जैसे ।

उस दिन मुझे समझ में आया। अपने होते नहीं है-👇👇

बनाय जाते हैं। कुछ वक्त देकर कुछ समझकर और कुछ मुस्कुरा कर और समझाकर !

 

###############

अपने बनाय जाते हैं

###############

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समाज और मैं 👈🤔

forhindi 13 अप्रैल 2022 0 comment

 समाज और मैं 👈🤔

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किसी ने पूछा है तुम्हारा नाम क्या है?

 हमारा जवाब :-👇

अरबों की भीड़ में- वैसे तो मैं भी एक भीड़ का हिस्सा हूं-पर जो भी     जान-पहचान वाले हैं। वो ना जाने क्यों मुझे वरुण कहते हैं।

उन्होंने बोला :-  तो आपका नाम वरूण है?

मैं:-  जी, हां !‌ मैं तो बचपन से इसी नाम पर हामीं भरता आ रहा हूं।

वो:- आप सच बोल रहा है ना!

मैं :-‌ सच का पता नहीं पर बचपन से यही सुनते और इसी पर हामी भरते आ रहा हूं।

वो:- पागल है आप ?

मैं:- मेरे करीबी भी यही कहते हैं। हो भी सकता हूं।

मैं:- खैर, आपका नाम क्या है?

वो:- समाज ।

मैं :- क्या आप सच में समाज हैं! मेरा मतलब कि क्या आपका नाम सच में समाज है?

वो:-  मुझे जब से समझ आई तब से मुझे इसी नाम से बुलाया जाता  आ रहा है।

मैं:- यानिकि आपकी और मेरी दोनों की एक ही हालत है।

मैं :-  मैं एक वरूण नाम के अस्तित्व में इंसान हूं !

मैं :- आप ?

वो:- मेरा पता नहीं पर समाज हूं। क्योंकि सभी मुझे इसी नाम से बुलाते हैं। और जो सभी बुलाते हैं, वो अधिकतर सत्य ही – होते हैं।

मैं:- हूं! यूं तो आप ठीक ही कह रहे हो। पर मैने सभी के मुंह से तो‌ बस यही सुनता हूं कि जंगल का राजा शेर है। पर कभी उसके सिर पर ताज आजतक नहीं देखा, किसी तस्वीर में भी नहीं ।

वो:- जब सभी बोलते हैं । तो सही ही होगा। तुम भी मान लो।

मैं’- आप ठीक कह रहे हैं। आप समाज जो है। आप मुझसे ज्यादा जानते हैं।

अच्छा चलता हूं! 🙂

‌                     👋👋   फिर-मिलेंगो।

वो:- हूं। ठीक है!

 

_______________________  💫   ______________________

 

बुराई और अच्छाई

 

बुराई पूरी तरह कब्जा करना चाहती है, पर अच्छाई मुस्कुरा के उसे दरकिनार कर देती है।

यह अच्छाई और बुराई का जंग काफी सदियों से चला आ रहा है। काफी वर्षों की संघर्ष है।

हर कतरे-कतरे की कहानी है। जीत-हार, प्रेम-वार, शाम-दाम-दंड-भेद हर शस्त्र का इस्तेमाल होता है-यहां इस युद्ध में। मैं-आप-हम-तुम अनादि कोई भी अछूता नहीं रहा इस युद्ध से। क्या भगवान-क्या‌असुर,‌ क्या सतयुग और क्या कलयुग। सत्य-असत्य धर्म-अधर्म का टकराव सदैव बरकरार रहा है। एकांत-भीड़, निष्कासित-समजिक, शिक्षित-अशिक्षित-सब त्रस्त हुए हैं-इस युद्ध से। यह युद्ध पूर्णता की खोज की है-आधार की-सहनशीलता की खोज की। यह युद्ध कभी आसान नहीं था – ना है – ना होगा। क्योंकि आधार कमजोर नहीं होना चाहिए। और पूर्णता सहज नहीं होती और सहनशील यूं ही नहीं बना जाता। यह सब श्रेष्ठतम गुण है- और श्रेष्ठता  कभी-भी सहजता से प्राप्त नहीं होता। पर याद रहे जो सहजता से प्राप्त हो जाए वह श्रेष्ठ नहीं होता। आप कोई भी बड़े चरित्रवान-गुणवान-धनवान-बलवान या भगवान का नाम लीजिए और आप पाएंगे कि उनमें पूर्णता-सहनशीलता- आधारशीला जैसे गुण समान्यता से दिख जाते हैं।पर जितनी समान्तय से यह गुण दिखते हैं-प्राप्त नहीं होते।

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एक बड़े लंबे द्वंद से गुजरना पड़ता है – इन सबको। तब जाकर ये गुण फलित होता है-मनुज में। बिना लड़े ये जंग आप में आधार नहीं पनपा सकता और बिना आधार के सहनशीलता- कहां से आएगी। और बिना सहनशीलता- स्थिरता के पूर्णता की कामना करना उतना ही दुष्कर है जितना बिना नींद से जागे-सुबह देखना। और बिना दिनों में कठिन परिश्रम किया रातों में गहराई के संग सोया नहीं जा सकता।

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वो पागल है(मंगु)…😁😄😆

forhindi 7 अप्रैल 2022 0 comment

वो पागल है (मंगु)…😁😄😆

अरे !

देखा तुमने,” मैनें कहा था ना – वो पागल है।”

” हाँ !

सच में !

तुम ने बिल्कुल ठीक कहा! वो सच में पागल है।”

 

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हाँ हाँ हाँ हाँ हाँ ! 😆😄😆

 

“वो बचपन से ऐसे ही है।”

यह उक्तियां दो सज्जन स्त्रीयाँ- मंगू के पड़ोस में रहने वाली मंगू के बारे मे कह रही थी।

और सिर्फ यहीं दो नहीं बल्कि पूरा समाज मंगु की ही देखभाली (कहने को) में जुटा रहता।

मंगु जन्म से कुछ मानसिक कमियों के साथ पैदा हुआ था। इसका शरीर तो बड़ा हो गया था।

पर दिमाग बच्चो वाला था। उसको अच्छे-बुरे का फर्क पता नहीं था। बस जैसा देखता –

वैसा करने की कोशिश करता। पर हर काम से वो लोगों के बीच हस्सी का पात्र बनता।

 

क्या आस-पड़ोस, क्या गाँव हर कोई मंगु के बारे में कुछ कहता और सुनता नजर आ जाता।

कि – तुम्हे पता है ‘आज मँगु ने-ना,

हाँ ! हाँ !

   क्या ?👂

एक अदमी को दाँते काट लिया।”

अरे बस।

कल तो उसने-इससे भी बुरा किया था? बिल्कुल पागल है वो – पागल।

उसे तो पागलखाने में होना चाहिए। ना जाने  हमारे बीच क्या कर रहा है।

इतना बड़ा हो गया है ” पर अक्ल नाम की चीज़ नहीं है- उसमें।

पर मंगु को इस बात से उतना ही फर्क पड़ता – जितना उसके  समाज को मंगु समझ में आता।

यानी कि मंगू उन्हें पागल समझता  और समाज वाले मंगू को। मंगु कुछ कहता नहीं था-

चाहे लोगों उसे कितना भी डांट ले- या मार ले।या उनके मम्मी -पापा को उल्हने दे -दे।

क्योंकि उसे समझ में बस हाओ-भाव दिखते थे – जो क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं –

ना समझ आता था – ना जानना चाहता था – वह बस मुस्कुराता था।

 

एक दिन मंगू ने किसी बच्चे का खिलौना छिन- गलती से तोड़ दिया।

शायद खेलते-खेलते टूट गया था। खिलौना वैसे भी पुराना हो गया था।

और बच्चे की मां तो मां होती हैं। वो चढ़ आई। क्यों-रे मंगु! जब तेरे को अक्ल-वक्ल नहीं है

 

तो चुपचाप घर में क्यों नहीं रहता। उसके मां-बाप से,”आर्य समाज में रहने वाला नहीं पागलखाने में रहने लायक है।

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इतना बड़ा हो गया है, पर फिर भी बच्चों के खिलौने से खेलता है। हाथी कहीं का !

आप लोग इसे घर में रखे क्यों हो ? रखना ही है- तो हाथ-पैर बांध के रखो।

और काफी देर तक मंगु को और उसके माता-पिता को सुनाते रहती है।

इस पर मंगू के पापा ने वह खिलौना दुकान से खरीद के दे दिया।

और गुस्से में ले जाकर मंगू को घर में बंद कर दिया। और भगवान को कोसने लगे

उसकी मां का तो रो-रो के आंखें लाल हो गई थी। पर मंगू अभी- भी मुस्कुरा रहा था।

 

वह बच्चा जिसका खिलौना टूटा था, उसे नया खिलौना मिल गया था। इसलिए वह भी मुस्कुरा रहा था।

बच्चे की मां का सारी रात सर में दर्द रहा। पति के के पूछने पर बोली यह सब किया धरा उस पागल हाथी का है।

शाम को जब उसका पति वापस लौटा था तो अपने बच्चे के लिए नया खिलौना वह भी लाया था।

क्योंकि उसको भी पता था कि उसके बच्चे का खिलौना पुराना और खराब हो चूका था।

पर मंगु के मां-बाप नया समझदार मंगु नहीं ला सकते थे। और ना नया खिलौना मंगु के लिए।

क्योंकि मंगु को अपना और पराया खिलौना नया-पुराना खिलौना समझ में ही नहीं आता था।

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पर मांगू के मां बाप अपने बेटे के लिए नया खिलौना नहीं ला सकते थे।

क्योंकि उसको मुस्कुराने के लिए किसी को खिलौना लाने या बनाने की जरूरत नहीं होती।

मंगू अभी-भी मुस्कुरा रहा था। मंगू के लिए कोई भी चीज का खिलौना इसका-उसका नहीं था।

बल्कि सबका था। जो उनके संग जब चाहे खेल सकता था और खेला करता था।

पर उस औरत के सिर में दर्द नया खिलौना ना ठीक कर पाया।

कल सुबह समाज के जुबान पर मुस्कान थी की मंगु को तो पागलखाने में रहना चाहिए यहां हमारे बीच नहीं।

हां! मैं भी कहता हूं उसे उनके बीच नहीं बल्कि उस चारदीवारी के बीच गेट पर लिखे पागलखाने में रहना चाहिए।

जहां ना कोई अपना होता है ना कोई पराया और ना ही किसी का दिल दुखा कर खुद को समझदार सज्जन समझने वाला  समाज।

जिनकी सीमा एक चारदीवारी है। और इधर-उधर की बात और खुद को समझदार समझने के लिए एक मंगु की तलाश।

इससे अच्छा वह पागल खाने में रहता।

असली पागलों से दूर।

….. वरूण

 

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