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राधे – श्याम

forhindi 15 जून 2022 0 comment
राधे – श्याम

राधे – श्याम

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त्रेता युग – गोकुल की गलियां। श्याम की बंसी और राधा का बेचैन होना।

भारतीय संस्कृति की वह बंसी और धुन जो अमर है ।किस लिए ?

यह बताने की जरूरत नहीं नहीं है। आप सबको पता है, राधा- कृष्ण की कहानी।

राधा – कृष्ण के लिए क्या नहीं थी, सब थी सखी – लक्ष्य – मार्ग यानी कि सब कुछ।

कुछ भी ऐसा नहीं था जो वो ना थी।  श्याम बजाते ही इसलिए थे – ताकि राधा सुन सके। उनके पास आ सके।

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यूं ही नहीं बांस के छेद वह सुर-ताल बजाते थे। राधा के लिए श्याम,  श्याम के लिए राधा सब कुछ थे।

एक – दूसरे को ढूंढते रहते – ना देखते तो परेशान होते।एक दिन भी ऐसा ना था कि राधा-कृष्ण दूर होते थे।

 

 फिर सवाल यह उठता है। श्री कृष्ण कैसे अपने सबसे प्रिय को छोड़ गए।

जिसे हर रोज ढूंढते थे – तकते थे – ना दिखने पर मरते थे। वह जो सब कुछ थी –

उसको छोड़ गए। जिसके बिना एक दिन भु नहीं कटता था। उसके बिना पूरी जिंदगी जिए।

आसान नहीं था। इतना खास होकर दूर होना।

पर फिर भी क्यों अलग हुए ?‌

 

जो मुझे लगता है :-‌

क्योंकि राधा जरूरी थी। पर जीवन का कर्म/मर्म महत्वपूर्ण।

राधा लक्ष्य होते हुए भी – लक्ष्य नहीं थी(क्योंकि लक्ष्य को पाया जाता है-

और राधा तो पहले से ही कृष्ण थी – और कृष्ण- राधे) क्योंकि संसार के सृजन के लिए –

संयम के लिए ज्ञान के लिए। राधा को त्यागना था। ताकि एकाग्रता से ज्ञान प्राप्त कर सके –  तभी गीता जैसा सार उपज ।

 

बड़े – बड़े लक्ष्य के लिए बड़े – बड़े कदम उठाने पड़ते हैं।

क्योंकि जब तक राधा उनके संग होती तो ज्ञान की प्राप्ति सही एकाग्रता के साथ ना हो

सकती क्योंकि राधा-श्याम की एकाग्रता थी। तो एक एकाग्रता  के साथ दूसरे पर एकाग्र कैसे हो सकते हैं?

और बिना एकाग्रता के महानता कैसे पाई जा सकती है।

 

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महान लक्ष्यों के लिए – जन कल्याण के लिए  – निजी लक्ष्य – सुखों का त्याग राधे -श्याम है।

पहले बेतलब आदत की लक्ष्य के लिए जहर पीकर बिछुड़ाना या छोड़ना राधे-श्याम होना है।

राधा – कृष्ण सच्चे प्रेम की निशानी है। जो साथ ना होकर भी साथ थे – हैं।

एक-दूसरे की लक्ष्य में – भविष्य में। भविष्य के लिए वर्तमान के सुखों का त्याग राधे-श्याम है।

राधेश्याम होना रासलीला की ही नहीं – सहनशील होने का भी प्रतीक है।

एक – दूसरे के लिए हद से ज्यादा बेहद होने के बाद भी मर्यादा में होना राधा-श्याम होना है।

तो बोलो, ” राधे – राधे”! ‌‌

 

 

1. मेरे अनुसार राधा- कृष्ण ( एक – सिख)

 

2. नकरात्मक सोच से छूटकारा कैसे पाय ?

 

 

3. हम कमजोर कब होते हैं ?‌

……….Meri Kitabe ……….

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2.अंधेरों का उजियाला (Hindi Edition) Kindle Edition
3.जिंदगी – पाप और कर्म (Hindi Edition) Kindle Edition
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भ्रम

परिस्थितियां और हम

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भ्रम

forhindi 30 मई 2022 0 comment

भ्रम

 मेरा एक दोस्त अपने परिवार वालों के साथ गाँव जा रहा था। क्योंकि किसी की शादी थी

और सबसे ज्यादा जरूरी उनका जो घर था। उसके पूजा के लिए । तो वो गांव पहुंचा।

शादी में गया और जब शादी हो गई तो अपने सबसे ज्यादा जरूरी काम ।

घर की पूजा कराने के  बैठे – जिसके लिए वह गए थे। तो जो पूजा कराने आए थे।

वह कुछ मंत्र पढ़े – रात के 12:00 बजे थे। कमरे में अंधेरा था।

सिर्फ एक दीपक की लौ के अलावा – पंडित कुछ देर बात कर।

मेरे दोस्त के परिवार वाले को बताता है कि तुम्हारे घर के चार पूर्वज दो पुरूष –

दो स्त्रियां बंधक बनी हुई है इस घर में। क्योंकि उनके कुछ कर्म बुरे थे।

इसलिए जब-तक घर की पूजा नहीं होती –  भूतों को भगा नहीं दिया जाता।

जब-तक इनको शांति नहीं मिल जाता तब – तक आपके घर में कभी खुशहाली नहीं आ सकती ।

 

 

हां! वह बताता भी था – कि भाई मेरे परिवार में इतने लोग कमाते हैं,

पापा की सारी सब्जियां भी बिक जाती हैं, पर फिर भी पैसों का पता ही नहीं चलता कहां गए ।

लगता है हमें अपने घर की पूजा करवानी होगी ।

तो जब यह बात  उसके पापा-मम्मी और बड़ों ने सुना तो राजी हो गए।

फिर बाबा ने अगले दिन एक बड़ी पूजा घर में करवाई उत्तर- दक्षिण-पूर्व-पश्चिम

के भूतों को भगाने के लिए। तो इसमें भूतों ने बकरे की बलि मांगी – शराब मांगी।

दक्षिण की बहुत सबसे ज्यादा ताकतवर थी। वह जल्दी राजी ही नहीं हो रही थी।

 

 

तो बकरे की बलि शराब और भोज कराने के बाद रात को 12:00 बजे वह बाबा अपने जिन,

को जिस भूत ने मिलने के लिए बुलाया था। उससे बात करने को भेजा था।

बाबा इधर पूजा कर रहा था। भूतों के संग जबरदस्ती कर उन्हें भगाने की कोशिश कर रहा था।

भूत जिद्दी थे – जल्दी मान नहीं रहे थे। तो बाबा अपने तंत्र-मंत्र का पूरी शक्ति का प्रयोग कर

उन भूतों की इच्छा पूरी कर, चिल्ला-चिल्ला कर बात कर रहा था

और इस प्रक्रिया के दौरान मेरा दोस्त काफी डर रहा था।

 

 

बाबा ने भूत को बंदी बनाकर जिन को उसे एक जगह बांध लाने को बोला –

तो जब वह जुन और बाबा भूतों को लेकर निकले।

रात के उस कालमयी अंधेरे में – गांव के अंधेरे में।

तो वैसे ही कुत्ते रोने लगे। यह देख कर दोस्त निर्णय करता है

कि वह घर से बाहर नहीं निकलेगा पर शौचालय उन्होंने घर के बाहर ही बनवाया था।

पर वह सब कुछ कंट्रोल कर सकता था पर बाहर नहीं जाता।

 

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बाबा ने जब उन भूतों को बांधा तो जहां पर बांधना था। उस जमीन को खरीदना पड़ता है।

उसके के लिए ₹22000 बाबा ने मांगे। मेरे दोस्त के पापा ने घर की खुशहाली और

अपने पूर्वजों की शांति के लिए दे दिए। पर जैसा मैंने आपको बताया सिर्फ दो भूत ही बंदी बनाए गए हैं।

अभी दो रही रहे हैं  – क्योंकि दक्षिण वाली बड़ी ताकतवर है। वह मान ही नहीं रही है। उसकी मांग कुछ और है।

तो अभी और पैसे और यज्ञ करवाने – लगवाने बाकी है। यह सारा हाल मेरा  दोस्त कॉल पर मुझे बताते हुए कहता है।

,” यार मुझे समझ में ही नहीं आता कि मेरे गांव के लोग अभी-भी किस भ्रम में है। जो इन सब पर भरोसा कर लेते हैं।

जब बाबा ने हमारे पूर्वजों के बारे में पूछा तो हमें तो पता नहीं था

तो एक बहुत पुरानी बुढ़िया ने उन्हें हमारे पूर्वजों के बारे में बताया और

फिर बाबा ने दो भूतों को जैसे – तैसे बंधी बनाया। गांव के सारे लोग आए थे।

भोज हुआ था। बकरा कटा था। भाई बहुत पैसे खर्च हुए।

 

 

अभी तो दो भूत रही रहे हैं। ना जाने मुझे समझ में नहीं आ रहा पूरा का पूरा गांव किस भ्रम में पड़ा हुआ है?”

तो जब यह बात मैंने अपनी मां से बताया तो मां बोली,

” देख पूजा करवाना। सुख-शांति के लिए अलग बात होती है।

पर अगर उसको यह भ्रम लग रहा है। पूरे गांव वालों को इसका दोष दे रहा है।

तो सबसे बड़ा हंसने का पात्र वह खुद है। क्योंकि सबसे पहला भ्रम उसके अंदर पनपा था।

गांव वालों को बाद में। तभी उसने गाड़ी पकड़ी थी – अपने घर की।”

 

 पहली शुरुआत हम से होती है। पूजा – पाठ – यज्ञ, मन – आत्मा की शांति और

तसल्ली के लिए करवाना चाहिए। पर भ्रम लगे तो नहीं। भ्रम की शुरुआत सबसे पहले हमारे से-ही होता है।

उसके बाद बाबा और गांव वाले आते हैं। मुझे नहीं पता यह सच है – या झूठ पर इतना पता है उसके पापा –

बड़े पापा – छोटे पापा बहुत बड़े पियकर हैं। जो हर वक्त नशे में रहते हैं ।

और घरवाले पैसा ज्यादा उड़ाते हैं जैसा वह मुझे हर अगले दिन बताता था

भाई हमारे घर में सुबह तक  ही कई बार चाय और कई तरह की सब्जी मुर्गा – पनीर – मीट बन जाते हैं।

 

सबकी अपनी-अपनी पसंद है । तो पैसे कैसे बचेंगे। पर इसका मतलब मैं उनको झूठा नहीं बोल

रहा क्योंकि यह झूठ और सच हमारे दिमाग की धारणा है। और भ्रम – भी और मेरा दिमाग वहां नहीं था

तो कैसे कह सकता हूं क्या सच है क्या झूठ!

 

पर मां ने सही कहा- गाड़ी उसी ने पकड़ी थी। लोग तो बाद में आया ।

 

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भ्रम

भ्रम की शुरुआत हमी से है-

भ्रम और कहीं नहीं,

जग पर क्यों हंसते हो ?

इस तमाशे के लिए –

जब घर में तमाशे तुम्हारे हो रहा था तो।

 

 

————-Meri Kitabein ————

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3.आत्म-शक्ति! (Hindi Edition) Kindle Edition

 

 

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परिस्थितियां और हम

forhindi 1 मई 2022 1 comment

परिस्थितियां और हम

‌          परिस्थितियों का पक्का अनुमान रहे – 

             हम इंसान है ये ध्यान रहे !

 

एक पंडित था, जो कि काफी ज्यादा लोकप्रिय था। उसके कुछ शिष्य थे – जो उससे शिक्षा प्राप्त कर रहे थे।

तो क्या होता कि, गुरुकुल का एक नियम था – जिसके अनुसार एक निश्चित समय पर शिक्षा प्राप्ति के बाद

सभी शिष्यों को दक्षिणा लेने को जाना होता था। तो इस बार कुछ शिष्य अपने आश्रम के समीप स्थित राज्य के राजा के वहाँ गय,

इस उद्देश्य से कि एक बार राजा जी से माँग ले-तो रोज – रोज माँगने की नौबत ही नहीं आयेगी।

तो वो शिष्य निकल पड़े राजमहल की तरफा। राजमहल दो घंटे की दूरी पर था ।

आज से और आजम से राजमहल तक पहुंच कई रास्ते थे।और आश्रम से राजमहल पहुंचने तक के कई रास्ते थे।

उनमें से अधिकतर दो घंटे के आस-पास ही पहुंचाते। मगर एक रास्ता था – जंगल से होकर ।

जिससे राजमहल की दो घंटे की दूरी – डेठ घंटे में ही पूरी की जा सकती थी।

पर वो रास्ता अच्छा नहीं था इन्होंने – सुन रखा था। इसलिए उस रास्ते से कोई आता -जाता  नहीं था।

और जो कभी आते-जाते थे। बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़ता था – उनको ।

जो उस जंगलों से भी आय थे । वो बताते थे कि वहाँ पर एक गौंग रहता है।

पर यह काकी साल पहले की बात थी – अब उस जंगल से आना-जान सुगम हो गया था।

कुछ लकड़हारे उसी जंगल में रहने लगो थे।

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रास्ता

 क्योंकि जो गैंग थी – वो राजा के डर  से कहीं और चली गईं थी- ऐसा सुनने में आया था।

तभी-से वहां लकड़हारे रहने लगे थे। तो जो शिष्य थे – वो थोड़े निडर थे।

निकल गय उसी रास्ते – से राजा जी के के पास जल्द से जल्द पहुँचने के लिए।

जाते समय उन्हें कोई तकलीफ नहीं हुई। लकड़हारों ने उन्हें पानी-वानी भी पिलाया  और

बातों- बातों में उन्हें पता चला कि वे आश्रम से आय शिष्य है – जो राजा जी के पास जा रहे हैं –

भिक्षा मांगने। लकड़हारों ने उनकी और मदद की  राजमहल जल्दी-से-जल्दी पहुंचने में ।

ये राजमहल पहुंचे। राजा से भीछा ली और यह सोचते-बतियाते खुशी से आ रहे थे।

 

 

कि हम तो जय हनुमान ने गए थे राजा साहब कितने अच्छे हैं इतने सारे अन्नों के साथ सोने-जवाहरात भी दे दिया है।

अब हमें मांगने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी और गुरुदेव भी हमारी बहादुरी से खुश होकर।

हमें इनाम देंगे। पर वो जब गुरुकुल पहुंचे तो – काफी डरे हुए और खाली हाथ लौटे थे।

जब गुरु जी ने पूछा, ” क्यों भाई आज तुम लोगों को किसी ने डराया है क्या ?

और भिक्षा भी नहीं दिया क्या ? और तुम लोगों  की भिक्षा पात्र पोटली कहां है,

जो तुम लोगों के शरीर से लटकती रहती थी?” तो उन शिष्यों ने डरते-डरते सारी घटना सुना दी कि गुरुदेव हम राजा के पास गए थे।

भिक्षा प्राप्त करने। जल्दी जाने के चक्कर में हमने जंगल वाला रास्ता पकड़ लिया।

जाते वक्त तो कुछ नहीं हुआ बल्कि उन लकड़हारों ने मदद भी की थी।

आते वक्त उन्होंने हमें पानी पिलाकर बेहोश करके हमारा सारा धन समेत –

भीक्षा भी उन्होंने ले -लिया।

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और हमें अचेत अवस्था में वही जंगल में ही छोड़ दिया। जब चेतना आई तो – पाया कि अंधेरा होने लगा है

और हम लोग भटक गए थे, जंगल में कहीं। पर जैसे-तैसे हम लोग वहां उस जंगल से बच के आए।

गुरुदेव ने समझाया कि, वह जो लकड़हारे – हैं असल में वही वह गैंग वाले हैं ।

और जिन्हें वो उस जंगल से आने-जाने देते हैं वो उनके ही संगी-साथी होते हैं।

और या वो लोग जिनके पास ज्यादा कुछ नहीं होता है।

पर तुम लोगों ने मुझे बिना बताए राजा के पास गए और वह भी सोना-चांदी मांगने ।

इसकी मैं – तुम लोगों की अवश्य सजा देता पर तुम लोग पहले ही  सजा पा चुके हो – तो मैं क्या दूं!

 

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मैडमों ( एक देहाती और ऑफिस_ कल्चर का टक्करार)

forhindi 28 अप्रैल 2022 0 comment

 मैडमों

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Office

 

एक ऑफिस था और काम करने वाले स्टाफ और उनके काम करने वाले जगह को साफ रखने वाले/वाली “स्टाफ वहाँ काम करते थे।

इन्ही जगह साफ करने वाली में से एक नई देहात से आई थी। देहात की यानिकि :- 👇

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Village

 

शर्म-हया-खुलेपन-मदमस्त और अपनापन का मिजाज वाले लोगों का बसेरा।

ये वहाँ से हाल ही में किसी के कर्जा चुकाने के खातिर अपनी पति की कमाई मे मदद कराने आई थी।

उसक पति काफी सालों से काम कर रहा तो आसानी से कंपनी में भर्ती करवा देता है।

ऑफिस यानिकि व्यवस्था सीनियरों का रिस्पेक्ट। ये रंगीन दुनियाँ में सादगी (ब्लैक एंड व्हाइट) का मिश्रण था ।

सादगी बेचारी इतनी रंगीन दुनिया को देखती तो देखती रह जाती – इतने फ्लोरो कौन से में से फ्लोर में जाना है,

खोजते रह जाती – पगडंडियों  यानिकि पगों के निशाने के पिछे चलने वाली – फर्श पर चलने आई थी – परेशानी तो थी ।

लहजा जरा गाँव वाला था – करती तो काफी लोग समझ नहीं पाते और काफी समझना नहीं चाहते थे।

ये मैडम को मैडमो कहकर पुकारती।  व्यवस्था परेशान थी, नाखुश थी-  पर सादगी पसंद सबको है।

पति काफी सालों से सुपरवाईजर था और मैंनेजर को पता था कि बेचारे पर काफी कर्जा है

तो उस सादगी को कभी दरवाजा नहीं दिखाया उन्होंने।

 

 

 

पर वो हर दरवाजा देखती। क्योंकि उसे शीशों का चक्कर समझ में नहीं आया था।

पुरानी आदत थी तो – वैसे ही जीते जैसे अपने गाँव में – पर शहर का थोड़ा ख्याल रखने की कोशिश करती ।

पर रख पाने में असक्ष्म थी। तो जो इसके साथ काम करते वो बड़ा परेशान थे –

क्योंकि इसको काम करना सही से आता नहीं था- मिट्टी को गोबर से लिपकर तो स्वच्छ कर देती थी –

पर फर्श के दाग हटाना इसको नहीं आता था । ये रंगीना दुनियाँ से परेशानी थी और रंगीन दुनियाँ इसकी –

सादगी से। इसको व्यवस्थित रहना – नही आता – जैसे मन करती रहती और लहजा गाँव वाला ही रखती ।

एक दिन मैडमों सब चाय पी रही थी कि इसकी नदानी – की वजह से हाथ से मैडमो का कप गिरा

और उनका ड्रेश गंदा हो – गया। जिस तरीके से कप बिखड़ा इनका गुस्सा कुछ ऐसे ही खंडीत हुआ।

 

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सादगी बेचारी डर गई जैसे नई दुल्हनियाँ  घबरा जाती है अपनी सास की डाँट सुनकर।

ये बोली, “माफ कर दो मैडमों- हमसे गलती से टूट गया। हम को नहीं दिखा था।

मैनेजर साहब से हमारे ऊ का कहते हैं शिकायत मत करना ।

चाहे हमको कितना भी कुछ कह लो या मार लो।” पर मैडम का संयम कप के गिरने से ही बिखड़ गया था।

और सभी उसकी ओर देख रहे थे उसकी दोस्त भी तो वो, “यूँ जाहील- गंवार ना जाने कहाँ-कहाँ से आ जाते है?”

जब काम करने नही आता तो क्यों आईं हो यहाँ। अभी रूको तुमको तुम्हारी औकात दिखाती हूँ ।”

सादगी बेचारी कांप उठी थी। मैनेजरे में सुनाया बहुत पर  ऑफिश से निकाला नही ।

 

दूसरी काम करने वालो ने उन बिखड़े कप के टुकड़ो को तो उठा लिया और

फर्श पर कैमिकल भी गिरा दिया। पर मैडमों का दाग, जल्दी नहीं हट रहा था ।

अब ये मैडमों से बच-बच के रहती और इसको मैडमों देखकर चिड-चिड़ी सी हो जाती।

‘काफी दिनों तक ऐसे ही चला। दो-चार महीने इसी लुका-छुप्पी में बीत गई।

पर दाग अभी- भी था – थोड़ा-थोड़ा, पर था। तो आज क्या हुआ कि ये मैडमों उस वाशरूम में थी

जिसमें वह काम कर रही थी। इसने सैंडल पहने थे।

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Sandal

 

 

जिसके कारण इससे सही चला नही जा रहा था।तो ये लड़खड़ा रही थी और गिरने ही वाली थी की –

कि सादगी ने हाथ  थाम लिया और बोली संभाल के मैडमों। कहीं आपको चोट ना लग जाए समान तो टूटते  रहते है  –

पर चोट लग जाय तो आदमी काम का नहीं रहता – कुछ दिनों, लिए।

 

 

और रंगीन जो लड़खड़ा के गिरने वाली थी – सादगी ने उसको बचा लिया।

यज देख के मैड्मों बोली “थैंक्स !‌ दी-दी  आज आपने मुझे गिरने से बचा लिया।”

यह , ” ये ” – तो मेरा फर्ज था इसमें शुक्रिया  वाली क्या बात है! ”

 

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बदनाम

forhindi 19 अप्रैल 2022 0 comment

बदनाम

 

हमारे घर पर पंद्रह-बीस किलो गेहूँ आय थे। तो माँ ने उन्हें धो-के छत्त पर पसार दिया-सुखने के लिए और

मुझे आदेश मिला कि यही बैठ के इन गेहूंओ की रखवाली कर।

माँ का आदेश था तो टाल कैसे सकते थे।

ना – चाहते हुए भी बैठ गए – गेहूंओ की रखवाली में । पर  पूरा वक्त, कौन बैठता है –

इतना धीरज तो था नही मुझमे।

तो कुछ देर नीचे आकर पानी-वानी पी लिया और थोड़ी देर बैठ के सुस्ताने लगा

कि अचानक माँ चिल्लाई कि “गेहूँ कौन देखेगा।

सारा गेहूँ तो कबूतर खा-गय होंगो । तुझे एक काम दिया था – वो भी सही-से नहीं होता निकम्में कहीं का !

जल्दी भाग के जा ऊपर!” आपको जैसे   पता ही-है – माँ का आदेश टाल नहीं सकता।

ना चाहते हुए भी भाग के गया तो देखा- पार्टी चल रही थी- कबूतरों की-एक – दो नहीं, दस-पंद्रह थे।

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पार्टी

 

और ऐसा लगा कि उनमें डर नाम की कोई चीज नही है। वो मुझे देख के भी नहीं भागे।

तो मुझे गेहूंओ के और पास जाना पड़ा। और मुझे उनके पास जाते

देख वो ऐसे भागे जैसे गधे के सर से सिंग।

वो मेरे  वहाँ पहुँचने पर भाग तो गाय पर ज्यादा दूर नहीं ।

मैंने कहा ना ” उनके दिल में डर नही था।

कोई छत के छज्जों पर बैठ गय – कोई टावर पर- तो कोई जहाँ जगह मिला वहाँ बैठ गया ।

और उन्हें देखकर मैं ! छत पर ही छायाँ ढूँढकर के बैठ गया – गेहूँओं से कुछ दूरी पर ।

और वो कुछ देर चुपचाप बैठे रहे और जब देखा मैं वहाँ पास चुपचाप बैठा हूँ ।

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बैठ-गय

 

तो गेहूं के पास से आकर वापस बैठ गए। “शी-शी -हुड़-हुड़” मैंने किया

पर इतने से वह सिर्फ पलक छपकाने वाले थे डर के भागने वाले नहीं।

तो फिर मुझे दो-चार पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े उनकी तरफ फेंकने पड़े।

जिससे हड़बड़ा कर वो काफी दूर भाग गए। पर वो तुलसीदास साहब कह गए हैं-

ना कि पेट की आग बड़वाॎगि्न से भी बड़ी होती है। यानी कि समुद्र

की आग से भी बड़ी पेट की आग होती है।

और जब इतने बड़े रचयिता ने लिखा है तो कुछ सोच कर ही लिखा होगा।

 

सोच गलत कह दिया अनुभूति और अनुभव से लिखा होगा। और यह बात हर किसी पर लागू होती है

चाहे उसके पास उदर हो या ना हो जैसे हम इंसान और वो समुद्र देख लो।

है बहुत विशाल पर इंसान को और-और-और चाहिए और समुद्र को जमीन।

और ये तो फिर कबूतर थे। वह भी जो इंसानी बस्ती में रहते हैं – आ रहे हैं।

जिनको इतनी मुश्किल से  एक-एक अन्न का दाना मिलता है

और  आज उनको दानों का भंडार मिल गया था- तो कैसे हटते।

वो डर से दूर थे पर भागे नहीं थे। और मैं भी उनके डर से वहीं बैठा था।

इस प्रकार वो मेरे दुश्मन थे और मैं उनके। 

 

पर कुछ रियासतों तक उनके जान को जोखिम में रखकर मेरे वहां  बैठने के बावजूद वहां गेंहू के पास आकर,

दाना चुगने की कोशिश करने से प्रभावित होकर जो दाने उन्होंने मेरे अनुपस्थिति में

बिछाई हुई पट्टी के नीचे बिखेर दिए थे,

उन्हें चुगने का आदेश या कहें कि स्वतंत्रता दे-दी थी- मैंने ।

इस प्रकार एक कबूतर के साहस करने से बाकी भी आ-गए।

जब-तक वो नीचे की चुग रहे थे – तब तक मैं शांत था।

लेकिन जैसे ही पट्टी पर हमला करते – मैं हिंसात्मक हो जाता।

जिससे वो भाग खड़े होते- इतने पर भी मैं उनका और वो छोटे उदर वाले मेरे दुश्मन थे।

मैं उनकी नज़रों में बुरा था और वो मेरे।

 

पर मैं ना बुरा था – ना वो। पेट दोनों की, भूख दोनों कि। हम कमाते हैं-

वह काफी मुश्किल से खाते हैं।

संघर्ष बराबर है। पर वह बेजुबान है, यह समझ कुछ दाने और

मैंने फेंक दिया अपने गेहूंओ से दूर उनके लिए,

पर वह बड़े वाले पर ही नजरे गर आए थे। जो कि स्वाभाविक है।

मैं अपनी पेट के लिए उन्हें वह धो-के पसारा था

और वह वहां उन्हें देखकर पसरे आ रहे थे। गलत हम दोनों गलत नहीं थे – सिवाय एक-दूसरे की नजरों के।

ऐसा ही कभी-कभार या सामान्यतः यह हमारे साथ होता है। मैं यहां इंसानो की इंसानों के द्वारा हुए गलत-

सही की बात कर रहा हूं।

वह भी वह वाले जिसमें आदमी दूसरे आदमी की नजरों में गलत होता है। हकीकत तो कुछ और होती है।

 

 

पर हमें लगता है कि उसने हमारे साथ बहुत गलत किया और उसे लगता  है

कि उसने सिर्फ वही किया जो करना चाहिए था।

और यह हर किसी के साथ होता है। जिंदगी में। तो बस यह कहना चाहूंगा कि

आप अपना पेट देखें वह जरूरी है

बस औरों की पेट पर लात ना मारे। अपनी हक रक्षा करें चाहे जैसे भी

औरों कि हकों को ना मारे।

फिर उसके बाद भले ही गुंडे – बदमाश समझे जाओ औरों की कहानियों में

पर आप सच में खुश रहोगे अंदर से।

जो कि इस बह्राड  में सबसे बड़ी चीज है। बस आप अपने आप को सही सिद्ध करने की कभी-

कोशिश करने मत लग जाना

बस कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर।

 

क्योंकि कभी-कभी औरों के नजरों में हमें बुरा बनना पड़ता है:- जिससे कि वो नायक/हीरों बन पाए! 

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वो पागल है(मंगु)…😁😄😆

forhindi 7 अप्रैल 2022 0 comment

वो पागल है (मंगु)…😁😄😆

अरे !

देखा तुमने,” मैनें कहा था ना – वो पागल है।”

” हाँ !

सच में !

तुम ने बिल्कुल ठीक कहा! वो सच में पागल है।”

 

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हाँ हाँ हाँ हाँ हाँ ! 😆😄😆

 

“वो बचपन से ऐसे ही है।”

यह उक्तियां दो सज्जन स्त्रीयाँ- मंगू के पड़ोस में रहने वाली मंगू के बारे मे कह रही थी।

और सिर्फ यहीं दो नहीं बल्कि पूरा समाज मंगु की ही देखभाली (कहने को) में जुटा रहता।

मंगु जन्म से कुछ मानसिक कमियों के साथ पैदा हुआ था। इसका शरीर तो बड़ा हो गया था।

पर दिमाग बच्चो वाला था। उसको अच्छे-बुरे का फर्क पता नहीं था। बस जैसा देखता –

वैसा करने की कोशिश करता। पर हर काम से वो लोगों के बीच हस्सी का पात्र बनता।

 

क्या आस-पड़ोस, क्या गाँव हर कोई मंगु के बारे में कुछ कहता और सुनता नजर आ जाता।

कि – तुम्हे पता है ‘आज मँगु ने-ना,

हाँ ! हाँ !

   क्या ?👂

एक अदमी को दाँते काट लिया।”

अरे बस।

कल तो उसने-इससे भी बुरा किया था? बिल्कुल पागल है वो – पागल।

उसे तो पागलखाने में होना चाहिए। ना जाने  हमारे बीच क्या कर रहा है।

इतना बड़ा हो गया है ” पर अक्ल नाम की चीज़ नहीं है- उसमें।

पर मंगु को इस बात से उतना ही फर्क पड़ता – जितना उसके  समाज को मंगु समझ में आता।

यानी कि मंगू उन्हें पागल समझता  और समाज वाले मंगू को। मंगु कुछ कहता नहीं था-

चाहे लोगों उसे कितना भी डांट ले- या मार ले।या उनके मम्मी -पापा को उल्हने दे -दे।

क्योंकि उसे समझ में बस हाओ-भाव दिखते थे – जो क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं –

ना समझ आता था – ना जानना चाहता था – वह बस मुस्कुराता था।

 

एक दिन मंगू ने किसी बच्चे का खिलौना छिन- गलती से तोड़ दिया।

शायद खेलते-खेलते टूट गया था। खिलौना वैसे भी पुराना हो गया था।

और बच्चे की मां तो मां होती हैं। वो चढ़ आई। क्यों-रे मंगु! जब तेरे को अक्ल-वक्ल नहीं है

 

तो चुपचाप घर में क्यों नहीं रहता। उसके मां-बाप से,”आर्य समाज में रहने वाला नहीं पागलखाने में रहने लायक है।

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इतना बड़ा हो गया है, पर फिर भी बच्चों के खिलौने से खेलता है। हाथी कहीं का !

आप लोग इसे घर में रखे क्यों हो ? रखना ही है- तो हाथ-पैर बांध के रखो।

और काफी देर तक मंगु को और उसके माता-पिता को सुनाते रहती है।

इस पर मंगू के पापा ने वह खिलौना दुकान से खरीद के दे दिया।

और गुस्से में ले जाकर मंगू को घर में बंद कर दिया। और भगवान को कोसने लगे

उसकी मां का तो रो-रो के आंखें लाल हो गई थी। पर मंगू अभी- भी मुस्कुरा रहा था।

 

वह बच्चा जिसका खिलौना टूटा था, उसे नया खिलौना मिल गया था। इसलिए वह भी मुस्कुरा रहा था।

बच्चे की मां का सारी रात सर में दर्द रहा। पति के के पूछने पर बोली यह सब किया धरा उस पागल हाथी का है।

शाम को जब उसका पति वापस लौटा था तो अपने बच्चे के लिए नया खिलौना वह भी लाया था।

क्योंकि उसको भी पता था कि उसके बच्चे का खिलौना पुराना और खराब हो चूका था।

पर मंगु के मां-बाप नया समझदार मंगु नहीं ला सकते थे। और ना नया खिलौना मंगु के लिए।

क्योंकि मंगु को अपना और पराया खिलौना नया-पुराना खिलौना समझ में ही नहीं आता था।

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पर मांगू के मां बाप अपने बेटे के लिए नया खिलौना नहीं ला सकते थे।

क्योंकि उसको मुस्कुराने के लिए किसी को खिलौना लाने या बनाने की जरूरत नहीं होती।

मंगू अभी-भी मुस्कुरा रहा था। मंगू के लिए कोई भी चीज का खिलौना इसका-उसका नहीं था।

बल्कि सबका था। जो उनके संग जब चाहे खेल सकता था और खेला करता था।

पर उस औरत के सिर में दर्द नया खिलौना ना ठीक कर पाया।

कल सुबह समाज के जुबान पर मुस्कान थी की मंगु को तो पागलखाने में रहना चाहिए यहां हमारे बीच नहीं।

हां! मैं भी कहता हूं उसे उनके बीच नहीं बल्कि उस चारदीवारी के बीच गेट पर लिखे पागलखाने में रहना चाहिए।

जहां ना कोई अपना होता है ना कोई पराया और ना ही किसी का दिल दुखा कर खुद को समझदार सज्जन समझने वाला  समाज।

जिनकी सीमा एक चारदीवारी है। और इधर-उधर की बात और खुद को समझदार समझने के लिए एक मंगु की तलाश।

इससे अच्छा वह पागल खाने में रहता।

असली पागलों से दूर।

….. वरूण

 

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वादा👉🤔

forhindi 1 अप्रैल 2022 0 comment

    वादा

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☝️आपने पतझड़ का मौसम तो देखा ही होगा ।वे पत्ते जो एक पेड़ की शोभा होते हैं-

जिन्हें एक वृक्ष इतनी यत्न से पोषता है- उन्हें-ही अंत में सुखा के झाड़ देता है।

और आपने फिर बसंत-भी अवश्य देखा होगा। आप सोच रहे होंगो! ये बात आखिर मैं पूछ क्यों रहा हूँ ?

तो इसका जवाब यह है कि आज आप से कुछ इसी-से मिलती-जुलती बात करनी है।

बात ऊपरी शिर्षक यानिकि वादों कि है। वादे- जिनके  नींव पर रिश्ते बनते और बिखड़ते हैं।

हम-ना कभी-कभी या अधिकतर बार ये गलती करते हैं कि हम जोश- जोश में वादे कर लेते हैं।

जो जरूरी होता है। उस परिस्थिति के अनुसार । वर्ना अगर हम वचन ना दे-तो कुछ गड़-बड़ हो सकती है।

उसी गड़बड़ी को बचाने के लिए हम वादे कर लेते हैं। जैसे राजा शांतनु –

गंगा से ताकि किसी तरह गंगा से शांतनु का विवाह संपन्न हो सके।

 

और  वह वादा- क्या था- आप सब ने महाभारत पढ़ी होगी तो अवश्य जानते होंगे।

जो आठवें पुत्र देवव्रत अर्थात भीष्म-पितामह पर आकर टूट गया।

मैं टूटते पत्तों- वादों कि बात अचानक बात कैसे करने लगा। आप भी अवश्य सोच रहे होंगे।

पर बाता इनके टूटने और जोड़ने की नहीं- बल्कि इनके अस्तित्व की है।

कि ये बनते क्यों है और कब इनका टूट जाना अनिवार्य हो जाता है।

आइए हम एक कहानी के माध्यम से इन को समझने का प्रयत्न करते हैं।

कहानी कुछ यूं है कि 👇:-

 

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एक जंगल था। वहां बहुत से जानवर सुख पूर्वक जीवन यापन कर रहे थे।

कि तभी अचानक उस जंगल में कुछ शिकारी आ-धपकते हैं।

शिकारी थे – तो अपना कर्म अच्छे से जानते थे। पहले दिन थोड़ा लालच देकर कई झुंड –

कई जानवरों को पकड़ के ले गए।

दूसरे दिन  दूसरे दिन भी यही हुआ – तीसरे दिन भी ऐसे ही सूर्यास्त हुआ।

बेचारे जानवर अपने ही घर में अब सुरक्षित नहीं थे।

कितना भी प्रयत्न कर ले हर रोज कोई ना कोई फंस जाता था।

 

दिन-प्रतिदिन जानवरों की संख्या घटती जा रही थी

और अब हाल यह हो गया था कि उन सब का अपने वंश के लुप्त हो

जाने का डर सताने लगा था।

सभी जानवरों ने सभा बुलाई और सभी जानवरों ने मिलकर यह तय किया कि शिकारियों का  सामना

नहीं कर सकते और कहीं और जाना तो मुमकिन नहीं है।

तो क्यों ना हम उन शिकारियों से कुछ बातचीत करके कुछ शर्ते रखवाले ।

जिससे हर रोज डर-डर के अपने घर में संभल-संभल कर चलना तो नहीं पड़ेगा ना ।

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तो शिकारी इस बात पर मान गए कि वह हर रोज जंगल नहीं आएंगे।

और हफ्ते में एक बार जानवरों की एक निश्चित संख्या को उनके पास पहुंचना था।

ऐसे जंगल में शांति तो आई ।

पर यह शांति ज्यादा दिन तक कायम ना हो पाई।

फिर वही डर उनके सामने आ गया वंश लुप्त होने का।

क्योंकि शर्त के अनुसार एक बड़ी संख्या को शिकारियों के पास शिकार बनने के लिए जाना पड़ता था।

जो शर्त बचाने की आशा से बनाया था वह भी – उनके अनुमान मुताबिक काम नहीं आ रहा था।

तो फिर जानवरों ने फैसला किया कि वह अब उन शिकारियों के वादे को नहीं निभाएंगे।

 

चाहे इसके लिए हमें उन से सामना करके मरना ही क्यों ना पड़े। जब शिकारियों के पास शिकार नहीं पहुंचा।

जब वह जंगल आय तो जानवरों – की शर्त ना मानने की बात पता चली।

तो वह वही अपनी पुरानी वाली चाल चलने लगे ।

फंसते थे कुछ जानवर- पर उतने नहीं मरते थे- जितने उन वादों को निभाते- निभाते मर जाते।

अब वादे नहीं थे- और जानवर मरते थे- तो

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जानवरों ने मिलकर कुछ शिकारियों का भी शिकार कर लिया।

ये जंग ऐसे ही चलती गई  जानवर ज्यादा मरे – शिकारी कम।

पर इनकी संख्या आज भी यह जंग लड़ रहे हैं और

वह इस बात की खुद को खुद किस्मत समझते हैं कि:-

कहां उनकी संख्या लुप्त होने वाली थी और आज कहां

वे लुप्त होने के डर से- यहां पर आ गया कि अब लड़ना सीख गए हैं।

और अब ज्यादा शिकारी के जाल में भी नहीं फंसते हैं।

 

लेकिन सोचो क्या होता अगर वह वादा निभाया-जा रहा होता- तो।

इससे शायद जानवरों की संख्या लुप्त हो जाती या फिर वैसे ही डर डर के जीते रहते हैं।

और इसलिए बच्चे से बड़े बनते ताकि किसी दिन शिकार बन सके। इस डर में जीते  और मरते जाते।

पर कभी-भी लड़ना नहीं सीख सकते थे। इसलिए वादों का टूटना जरूरी होता है कभी-कभी।‌‌

______________ ∆∆∆ _____________

 

इसलिए वादों का कभी-कभी टूट जाना भी जरूरी होता है।

जैसे गंगा के यौवन की मदहोशी में शांतनु ने सात पुत्रों को तो

मरने दिया पर सही पर वादा तोड़ देवव्रत को बचाया

जिसने यह मार्ग प्रशस्त किया और आगो चलकर पूरे संसार को

महाभारत जैसे महान ग्रंथ और आदित्य सीख का जन्म हुआ।

पर शायद देवव्रत वो प्रतिज्ञा तोड़ देते- तो ना वो शर-श्यया पर लेटते ना इतना बडा़ नर-संहार होता।

मगर-अगर वो प्रतिज्ञा तोड़ देते- तो ना महाभारत होती ना गीता का जन्म हुआ होता।

इसलिए सिर्फ कुछ ही वादों का टूटना जरूरी होता है या अधिकतरों का – पर सबका नहीं।

 

 

 

वादे चाहे कितने भी मनमोहक क्यों ना-हो अगर यह जीवन नहीं बदल सकते हैं तो उन्हें तोड़ना आवश्यक होता है।

इसलिए कहते हैं कुछ वादे टूटने के लिए ही बनते हैं।

…..✍️ वरूण

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वादा

 

 

 

 

 

 

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पता- लापता होने के बाद हुआ

forhindi 29 मार्च 2022 0 comment

पता- लापता होने के बाद हुआ

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एक वक्त वो भी था – जब हम स्कूल ना – जाने के लिए कई बहाने बनाते थे- आज एक वक्त यह भी आया-चेहरे मुस्कुरा रहे थे।

पर अंदर से हम सब-रो रहे थे। कुछ तो अंदर के संग-संग बाहर से भी रो पड़े। यह स्कूल का आखिरी दिन था।

दिल हमारे सीने में भी थी और है पर रोय नहीं-पर इसका मतलब यह बिल्कुल भी नहीं कि उन 12 सालों की यादों

को हम याद ना कर रहे हो या उनमें उतनी ताकत ना थी कि हमें ना रूला सके।पर अंदर से रो रहे थे और यह डर था

कि अंदर कि नमीं कहीं बाहर ओश ना बन जाए। पर बना नहीं और मर्द जाति की छाती ऊंची की ऊंची रही।

पर हम अंदर से टूटे जरूर थे।

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उस वक्त से इस वक्त तक का सफर छोटा नहीं था। थे कई रंगमंच और हम उसके खिलौने।
खिलौने जैसे मैंने कहा-हम यही मानते थे कि स्कूल एक कैद है यार! जहां रोज-रोज आना पड़ता है-
जाना पड़ता है। टीचर्स के हाथों के नीचे दबाया जाता है। डर के हमको रहना सिखाया जाता है।
12 साल से जिसको जहर समझा था जब उसे छोड़ने का वक्त आया तो वह पल बिछड़ने का जहर लगने लगा था।
जिसको कैद समझा उससे रिहा होने का समय :- सजा-ए-मौत लगा। तब समझ में आया जिंदगी ऐसे ही है :-

हैं 👉 सीधी-सादी पर हम है ना इसके रोज-रोज के स्टूडेंट इसलिए यह हमें बोझ लगती है।

 जैसे हमें अ से अनार वाली कक्षा से अध्यापक के सामने मजाक करने वाले पलों तक रोज आते-जाते लगता था।

पर जब अलविदा कहने का वक्त आता है ना – तब लगता है – क्यों जा रहे हैं यार!
वो टेंशन ही सही थी- वो लड़ाई ही सही थी- वो अध्यापक के डंडो से पीटना ही सही था -काश ना जाते, तो अच्छा होता।
पर क्या करे? हमारी ही तो इतनी सालों कि मन्नत होती है –
जिसे बदुआ समझ रहे होते हैं- वो असल में दुआ थी – यह तब समझ में तब आती है-
जब अलविदा कहने का वक्त आता है। और हम लाचार जब ना चाहते हुए भी मुस्कुरात है ! क्या करे ?
यही तो जिंदगी है:-होती है- तो कद्र नही- जाती है- तो छोड़ा नहीं जाता ।
यार, हम इंसान ऐसे क्यों है ? पता नहीं!‌‌🥀
 पर एक पते कि बात बताऊँ:-👇
 जो अभी है- ना चाहे-जैसा भी है-जिंदगी है- जो पता नहीं दुबारा मिले या ना मिले।
इसलिए इसको अंदर ज्यादा जीने की बजाय सच में इसमें जीना सीखों ना ।
 कैद जिसे समझते रहे उम्रभर – उम्रभर आई तो पता चला इसे ही जिंदगी कहते हैं!💐💐💐👇
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 हमने बस पत्थरों पर ध्यान दिया – रोड़ों पर- जो रास्ते मे रुकवाट बन के आई थी-
जबकि हमें तो नदी बनना चाहिए था – कोमल-तरल पर मार्ग ना भटको वाली –
पर्वत का सीना चीड़ कर उसका – बालू बनाने वाली। जो रास्ते में आय उसको ही माध्यम बनाने वाली।
हम बनाए तो गए थे इंसान गलतियों के पुतले पर ना जाने हम समझदार कब बन गए।
और हमें गलती करना गलत लगने लगा और गलत करना- सही! पता ही नहीं चला यार।
मैं तो भूल ही गया

हमें तो पता-लापता होने के बाद ही चलता है।

हम इंसान जो ठहरे। इंसान जनाब!
और एक बात बताऊं हम-भी इंसानी है। अभी-भी हम जी रहे हैं।
अभी-भी वक्त है- हमारे हाथ में। मरे नहीं है- सांसें चल रही है।
*******Meri Kitabein *******
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बस और यात्री

forhindi 5 मार्च 2022 1 comment

बस और यात्री   

 

                               बस और यात्री

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बस पुरानी हो चुकी थी। और बस का ड्राइवर भी। बस की दशा खराब थी अंदर से भी और बाहर से भी।

पर दिशा में एक दम सही चलती थी, एक बस स्टॉप पर कुछ यात्री उतरे और कुछ नए चढ़े।

पुराने जो उतरे, उनमें से कुछ खुश थे और कुछ परेशानी में उतर गए थे ।

क्यों?🤔

आइए जानते हैं।‌‌👇

कैसे ?🤔

जो नए यात्री चढ़े हैं उनके साथ सफर करके- उनकी बगल वाली सीट पर बैठकर या खड़े होकर।

जो चढ़े थे वह इस उम्मीद से चढ़े थे कि वहां(लक्ष्य) जल्द-से-जल्द पहुंच जाएंगे।

पर बेचारे एक ही बस थी उस रूट की तो चढ़ गए, उस भीड़ वाली बस में।

पूरी सीट पर कब्जा था और खड़े ऐसे थे लोग जैसे सायं- शरीर के साथ।

धक्का-मुक्की करके जगह बनाते हैं। और अपनी कमर को सीधा करते हैं।

मगर भीड़ इतना था कि उनकी कमर के साथ-साथ पूरा शरीर भी सीधा हो गया था।

उस बस में सभी तरह के लोग थे, औरत भी थी- मर्द भी बच्चे भी- बूढ़े और जवान भी।

और उसका जो कंडक्टर था वह आधा पागल था। वह सबसे तू-तड़ाक से बात करता

और लफंडर वाली स्टाइल में टिकट काटता। तो इनका भी कटता है जो चढ़े थे,

इनमें से‌ 1-2-3 शराबी भी थे। जाना कहां था इसका पता भूल गए थे,

तो कंडक्टर को ही गाली सुना दिया और कन्डेक्टर था ही‌ हरामी उसने भी सुना दिया।

और बस के अंदर के सारे लोग परेशान हो गए। पर जैसे पहले ही बता दिया कि बस में सब तरह के‌ लोग थे

तो कुछ मुस्कुराए तो कुछ ने गालियां और सुना दी। एक तो ना सीट सही था-ना सड़क धक्का-मुक्की भी अंदर।

सारे पैसेंजर बेहाल थे।

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और शराबी बस जहां बस रुकी-वह उतर गए और कुछ आखरी स्टैंड तक गए।

उनमें जो प्रेमी थे उनको तो धक्कों में मजे आ रहा था और जो लफंडर थे उन्हें भीड़ में दबंगई सूझ रही थी।

और उसी बस में कुछ चोर भी शामिल थे। लफंडर- चोर भटक गए रास्ता।

लफंडर कुछ समझ नहीं पाए और चोर-चोरी करके उतर नहीं पाए। सफर यूं ही आगे बढ़ा।

एक नया स्टॉप आया कुछ लोग उतर गया था कुछ ना चाहते हुए भी उतर गए, बस के कारण।

यहां भी वही हुआ जो थोड़े उतरे थे- उनमें से कुछ परेशान थे, कुछ खुश और बाकी तो बस ऐसे ही थे।

जिनको यह नहीं पता था कि उनके साथ क्या हुआ है। फिर कुछ लोग चढ़ गए।

एक बच्चा था और फैमिली। बच्चा भीड़ होने के कारण रोने लगा।

उसकी फैमिली एक स्टाॅप से आगे नहीं बढ़ पाया। वो उतर गए।

चूंकि उस रूट पर सिर्फ वही एक बस चलती थी तो उस फैमली को उतड़ने के बाद कई परेशानी हुई।

 

इस बस में सिर्फ  प्रेमी ही थे जिनके पास गंतव्य था- इसलिए इनको धक्कों में  मजा आ रहा था।

लफंडर उतर गया किसी नए स्टाॅप पर । चोर की चोरी भी पूरी हुई पर इस बार बस काफी आगे निकल आया था।

अपने स्टैंड से तो-वह भी उतर गय किसी स्टॉप पर।

क्योंकि यह बस वापस पीछे नहीं लौटती थी और  कितने लंबे चलते इसके बारे में भी नहीं पता था।

एक और स्टाॅप और फिर कुछ लोग उतर गय- तो कुछ चढ़ गए।

और यहां भी वही हुआ कुछ खुश तो कुछ ना खुश। बस यूं ही चलती गई है,

हर स्टाॅप पर कुछ चढ़े और कुछ उतरे। वहीं कुछ खुश और कुछ ना खुश।

 

पर क्यों?🤔

जो खुश थे।

वह इसलिए खुश थे क्योंकि वो सही जगह (अपने गंतव्य) अपने स्टैंड पर उतरे थे।

उन सारी धक्के- मुक्की, उतार-चढ़ाव खचाखच भरी बस में यात्रा करने के बाद।

और जो नाखुश थे वह इसलिए ना खुश हैं क्योंकि या तो वह गलत पते पर उतर गए थे या गलत बस पर चढ़ गए थे।

 

पर याद‌ रहे यह इकलौती बस है इस रूट ‌की और वापस भी नहीं आती।

तो इनके पछताने के सिवा कुछ और बचा भी नहीं था।पर कुछ प्रेमी भी जिनको अपने गंतव्य का ध्यान नहीं था।

वह भी कहीं के नहीं रहे। लफंडर जिनको होश नहीं था वह पता नहीं कहां मदहोश हो गए।

शराबी कहीं भटक गए तो- कई वहीं अटके हुए हैं। और बस चलती जा रही है।

बस की परिस्थिति वैसे ही है। कोई उतड़ के खुश हो रहा है- तो कोई दुखी।

पर याद रहे यह सिर्फ एक ही बस है, इस रूट की। पर खुश वही है जो सही जगह उतरा वह नहीं जिनका होश मदहोश है

या बेहाल रहा।

बस एक है स्टॉप कई सारे।

 

परिस्थितियां सबके लिए समान। पर कुछ परेशान है तो कुछ खुश।

आप ध्यान रखें- मदहोश यां खोना जाए। सफर जारी है अपने स्टाॅप का पता याद रखें।

बस ज्यादा देर नहीं रूकती और ना ही वापस लौटती है।

इसलिए मदहोश-बेहाल-परेशान हो तब भी अपने स्टाॅप का ध्यान रखें।

वह तुम्हें बचाएगी वर्ना आप भी उनके लिस्ट में आ- जाओगे जो करने के बाद परेशान थे।

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इंसान

forhindi 2 मार्च 2022 0 comment

 01-03-2022

                          इंसान

 

बात आज सुबह की है। यही कुछ 10-11 बज रहे थे। मैं किसी काम से साइबर कैफे पहुंचा था। मेरा काम तो नहीं हुआ, पर बड़े काम की बात पर मेरे कान ने ध्यान दिया। बात कोई नया नहीं था, पर बड़ा प्रभावशाली है। बात यह थी कि जब मैं साइबर कैसे पहुंचा था, मैं अकेला नहीं था । थे कुछ लोग, जिनमें से एक अपना आधार कार्ड बनवा रहा था। उसके कार्ड का प्रिंट आउट आया तो पता चला उसका नाम गलत है। तो वह आदमी बोला, “यार इन नगर निगम वालों को काम कौन देता है।

 

साले सही से एक नाम तक नहीं लिख पाते हैं।” तो उसने साइबर कैफे वाले भैया से,” मनोज अब इसे ठीक कहां से करवाऊ, किसी नए के पास जाऊं।” तो मनोज भैया ने बोला,” नए के पास क्यों जाओगे, जहां से बनवाया है वहां जाओ। वह काम की जिम्मेदारी भी लेगा और तुम उसे सुना भी दोगे। कोई नई जगह जाओगे तो वह तुम्हें सुनाएगा।” तो वह आदमी ठीक कह रहे हो,” मैं पुराने वाले के पास ही जाऊंगा, साले को एक-दो सुना कर भी आऊंगा।”

 

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बात यहां खत्म हुई उनकी; और मैं डूब गया इन शब्दों की हेरा-फेरी में नए के पास जाओगे तो वह तुम्हें सुनाएगा- पुराने के पास – जाओगे तो तुम उसे सुनाओगे।

 

कैसे लोग हैं ना हम!😶🤔

 सुनना नहीं चाहते– सुनाना चाहते हैं।

भूखे लोग नहीं देख सकते पर– खाना छोड़ते समय हम अन्न नहीं देखते हैं।

किसी को चोट ना लगे – मगर खरोचते हमीं हैं।

अजीब है ना हम भी।

महान बनाना चाहते हैं मगर जिम्मेदारी से भागते हैं।

हम सुनने और सुनाने का चक्कर में  इंसान नहीं बन पा रहे हैं। बन रहे हैं तो बस आधुनिक के नाम पर आधे-अधूरे इंसान। जो सुनने और जिम्मेदारी दोनों से बचना चाहता है। मैं बस यही सोच रहा हूं, कहां से शुरू हुए थे और कहां पर आ गए हैं? हम इंसान भी कितने अजीब है ना।

पर इंसान है यह बात अभी तक सही है। कि हम अभी-भी इंसान हैं।

पर !

एक कहानी और।

मेरा बहुत करीबी दोस्त एक-दो बार पहले भी लिख चुका हूं, उस पर। वह कह रहा था कि वरुण मैं-ना उससे अब रिश्ता नहीं रखना चाहता। मैं चाहता हूं कि मेरा उसका रिश्ता खत्म हो जाए, कुछ इस तरह से मैं उससे अलग होना चाहता हूं-कि उसे लगे कि सारी गलती उसी की है।

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यह कैसा प्यार है- जो  सीधा-सीधा नहीं कह पा रहा है कि मेरा मन भर गया।

बजाय इसके की उसको दोषी साबित करना है। ताकि उसे सुना के और यह एहसास दिला सकें कि तुम्हारी ही गलती थी-‌जो‌ हमारा रिश्ता टूट गया।

क्या सच में हमारा रिश्ता टूट गया है?💔

क्या सच में सिर्फ हमारी ही गलती है?🤔

 खैर।

अच्छा ही है- भरोसा टूटता रहना चाहिए। इंसान है ना। गलतियों का पुतला होता है। मगर यह कैसा पुतला है-जो यह समझता है कि वह गलतियों से भरा है, पर अपनी गलती नहीं मानना चाहता। वह नहीं चाहता कि उस पर कोई दोष आय।  ये कैसा इंसान हैं? क्या हम सच्च में इंसान ही है। या आधे इंसान हैं- आधुनिक युग के।…

 

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इस दुनिया में सबसे ऊंची -से -ऊंची ज्ञान भी 

आपकी चेतना से बड़ी नहीं है !

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