नई_अनगुंजे part-1
(हमारी अंग्रेजी की अध्यापिका)
👋👋हैलो दोस्तो!
कैसे हो आप सब ?🤔🤔
🙂🙂उम्मीद करता हूं-सब बढ़िया होगा!…
एक बात बतानी थी आप सभी को, मैं आज से एक नई श्रृंखला प्रारम्भ कर रहा हूं।
जिसमें मैं अपने अध्यापकों के कुछ किस्से बताऊंगा। इस आशा से कि उनकी किस्सों से आपको कुछ काम का मिल जाए।
बिना अध्यापक के ज्ञान नहीं होती। और इसमें मैं अपने अध्यापकों के कुछ किस्से बताऊंगा जिससे शायद आप कुछ सिख पाओ।
क्योंकि अध्यापक की बातें हो या दिनचर्या हर चीज सिखा सकती है।
इस श्रृंखला का नाम:-
नई-अनगुंजे है!
यह ब्लॉग इसका पहला भाग है!
अध्याय:-1
(मेरी अंग्रेजी की अध्यापिका)
कक्षा नौवीं की बात है। पहली-पहली बार आठवीं के बाद जब नौवीं में पहुंचे।
बहुत सारे अध्यापकों के बीच एक अलग पहचान लिए मिली, हमें हमारी अंग्रेजी की अध्यापिका।
माफ करना नाम नहीं बता सकता। पर काम जरूर बताऊंगा।
भारी-भरकम शरीर-चेहरे पर कुछ दाग पर रौनक थी, जैसे सूर्य का पृथ्वी से दिखता है।
पहला दिन। पहली क्लास। क्लास के अंत में, हम दोस्तों में बातें चली।
“चलो अंग्रेजी की कोई अच्छी टीचर तो मिली, जो पढ़ाती है।”
क्योंकि आठवीं तक हमारा अंग्रेजी में हाथ उतना ही तंग था, जितना मैडम हमें अंग्रेजी पढ़ाने में उत्सुक थी।
यानी कि न उन को पढ़ाने का जी होता था, ना हमारा मन होता था।
बस होता हुआ था कि या तो क्लास बंक या फिर आंख बंद।
ऊपर आ कर अच्छा लगा- चलो कोई अंग्रेजी पढ़ाने वाला तो मिला।
जैसे नई चीज के आ जाने से पुरानी में कमियां दिखने लग जाती है।
ठीक वैसा ही हमने किया। खूब सारी बातें। उम्मीद नई थी और पढ़ने की जानने की इच्छा भी।
पर इतने साल बीतने के बाद अब लग रहा है कि पुराना ही सही था।
ऐसा नहीं था कि इनको पढ़ाना नहीं आता था या पढ़ा भी सकती थी।
बस पढ़ाती नही थी। वह संविधान के प्रस्तावना की तरह थी।
और वह भारी-भरकम संविधान की तरह थी।
पर सिर्फ पहला पेज ही उन्होंने हमें जानने की इजाजत दी।
पहले दिन जो पढ़ाया था- दूसरे दिन पता चला कि वह गाइड का कमाल था। पर पढ़ाया था यह बवाल था।
अगले दिन यह हुआ कि बैठाया गया हमें। जान पहचान तो कल हो गई थी।
और पहचान के बाद रिश्तेदारी निभाने का जो रिवाज था। वह शुरू हुआ। किताबे खुली की खुली रह गई ।
जुबान खुला पर बातें किताबों से हटके थी। उसके बाद पता चला कि वह क्लास में ही नहीं आती,
क्योंकि वह बाकी कामों में बिजी होती है। उनका काम कोई और कर देता है।
फिर पता चला वह साल में कभी-कभी आ गई तो ठीक, ना तो भी ठीक।
वह आ जाती कभी तो बताती कि हमारे पपर्स में क्या होगा? पैटर्न कैसा होगा?
तुम्हें यह यह पढ़ना है- प्रिंसिपल सर से बोल दूंगी वह टेस्ट ले लेंगे।
और फिर घड़ी देखती समय रहा है तो थोड़ा बाहर घूम आती और फिर अंदर आकर बच्चों से गाइड मांग के,
“क्या पढ़ रहे हो बच्चे”, और उसके बाद तेरा क्या हाल है?
तू क्यों रूठा हुआ है? यह स्टाइल कम कर दो ! पढ़ाई पर ध्यान दे दो।
जो भी कहो भले ही वह पढ़ाने के पीछे थी पर जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं-ठिक इनके भी है।
सारे अध्यापकों को पता है कि यह नहीं पढ़ाती। सारे बच्चों को पता है यह नहीं पढ़ाती।
फिर भी काफी लोकप्रिय है। बदनामी के अलावा भी। जैसे मेरा ही एक किस्सा ले लो,
मुझे याद है कि हमें पहली -पहली बार सफेद शर्ट मिला था।
और बोला गया था कि अब से इसे पहन के आना है। पहला-पहला दिन पहना।
नया ड्रेस था-नई उमंग थी। तो उसी नई उमंग में पहली बार उनको गुड मॉर्निंग बोल आया।
उनकी आंखे इतनी तेज थी कि हम भाग रहे थे, तब भी इतने अध्यापकों के बीच में वह बोली।
“तेरा शर्ट बाहर क्यों है? अंदर कर ले इसे!” यानी कि वह डिसिप्लिन मेंटेन रखती थी।
डांट सुनाने का काम हो या डांटने का सबका काम कर लेती थी।
फेयरवेल हो या प्रोग्राम सबमें जान डालती थी। हर फंक्शन में वह ना होते हुए भी वह होती थी।
सब टीचर इन को जानते थे। प्रिंसिपल ने कह रखा था कि जो भी जो भी टीचर ना पढ़ता हो, उसकी खबर हमें दें।
और ऐसा नहीं था कि उन्हें उनकी खबर ना हो, या हमने कोई शिकायत नहीं भेजी हो।
पर प्रिंसिपल साहब इनका उपचार नहीं ढूंढ पाए। क्योंकि इनकी आदत है यह बहुत जल्दी घुल-मिल जाती है।
जहांडाटती है- वही प्यार से मुस्कान से समझाती भी है। इसलिए तो वह ऑलराउंडर कहलाया करती थी।
और हमारी यादों में अभी भी है।
क्योंकि भले ही यह नहीं पढ़ती थी। पर यह हमेशा हमारा पीठ थप-थपाने में।
हमारे लिए लड़ने में- मुझे याद है जब हमारे 10वीं का बोर्ड था। सब ने दबाकर पढ़ाया था।
पर इन्होंने ने दबाकर याद करवाया था। डर से डराकर। प्यार से बैठाकर हमें याद करवाया था।
एक्स्ट्रा पिरियड लगते थे तो यह सुबह जल्दी आ जाती थी और लेट तक रूकती थी।
और एक और बात यही वो थी जो हमारा हौसला ओबजाई करने हमेशा हमारे साथ हमारे सेंटर पहुंचती थी।
और सारे बच्चों को एक मुस्कान के साथ, “ऑल द बेस्ट!” कहती थी। यह सिर्फ पढ़ाती नहीं थी।
लेकिन वो हर काम करती थी जो हमारे लिए जरूरी था। यह हमारी अंग्रेजी की अध्यापिका थी-है।
इनकी खासियत है हर प्रिंसिपल से मिल जाती है। ऐसे जैसे बचपन का दोस्त।
फिर प्रिंसिपल सर भी क्या कर पाते। वह हमारी बातें सुनते और इनके साथ चाय पीते।
यह थी हमारी ऑलराउंडर शरीर से भी- कार्य से भी।
(धन्यवाद)
अगले अध्यापक का किस्सा-अगली बार!
तब-तक के लिए सुरक्षित रहे- मुस्कुराते रहे!…
और सीखने के लिए नीचे दिए गए लिंक को दबाये
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हमारी अंग्रेजी की अध्यापिका
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ज़िन्दगी भर – ज़िन्दगी के लिए !
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