भगवान कमजोर नहीं होते
चांद-तारे थे। मनमोहक वातावरण था। मैं लिखने का आदि – कुछ लिखने के लिए बेताब था।
कुछ कि तलाश में मैंने बहुत कुछ लिखें – पर उनमें मुझे वो तपिश ना मिलीं – जो मुझे शांत कर सके।
मैं कुछ बड़ा लिखना चाहता था। कुछ ऐसा जिससे जीवन में बदलाव हो।
इंसान अपने आप को और स्वाभाविक तरीके से जान – समझ सके।
मैं जब नहीं लिखता था तो पढ़ता था – और अभी भी पढ़ता हूं। एक कहानी में या कहीं पढ़ा था
सबकुछ ईश्वर से व्याप्त है और ईश्वर से ही शुरुआत और अंत है।
यह लाइंस मुझे काफी प्रभावित किए । मैं ठीक-ठाक नहीं बता सकता – मैं लिखने में कैसे आया।
पर मैं कहीं लिखा था। मैं प्रकृति की उन भावनाओं को व्यक्त करता हूं –
जो प्रकृति अपने-आप नहीं व्यक्त कर सकती। तो वह मेरे द्वारा अपने – आप को अभिव्यक्त करती है।
यानी कि बड़ा साफ-साफ आशय है मेरी है लिखनी – सिर्फ मेरी लिखावट मात्र है।
संदेश प्रभु से – मां सरस्वती से आता है। तो वही मैं उनके मंदिर की तरफ आस लगाए बैठा था।
कि कुछ मिले – कहीं से शुरुआत हो – कोई संदेश मिले। संदेश मिले बहुत मिले पर मैं संतुष्ट नहीं हुआ।
आश लगाए मैं कभी यहां – कभी वहां-कभी बैठता – कभी सोता।
पर ना मुझे यहां शांति मिलती – ना वहां – ना बैठे – ना सोते। शरीर बेचैन था।
फोन में डुबाया मन तो कुछ अच्छा ढूंढते – ढूंढते मन ऊब गया।
कापी बगल में पड़ी थी – तो मुझसे मेरा मन रूठ गया। सच कहूं तो मैं पूरा बेचैन हो जाता हूं।
जब कुछ लिखना चाहूं पर लिख ना पाऊं। सब कुछ रहता है। खेलता – कूदता, सोता – बैठता।
सच कहूं तो शरीर बेचैन हो जाता है – जब कुछ लिखना चाहूं – पर लिख ना पाऊं तो।
सब कुछ ठीक रहता है खेलता-कूदता, सोता – बैठता पर सच कहूं तो बीमार रहता हूं।
जब तक वह जो कागज पर उकेड़ना चाहूं पर ना उकेड़ पाऊं तो।
दुआ मांगता कुछ मिल जाए हाथ जोड़ूं या ना जोडू। निगाहें उनकी तरफ तब तक लगी रहती।
जब – तक वह मलाल दिल का कागज पर ना उतर जाए। आज मैं उतना ही परेशान था –
उतना ही बेताब था। सुबह से शाम हो गया था। मन – शरीर सब शांत ऊपर से – पर अंदर से तूफान था।
ना शांति से बैठ पाता था – ना चैन से सो पाता था ।उदवेगना- बेचैनी- सारे उस स्तर पर मुझमें थे –
जितना एक गंभीर बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति का मन लगने नहीं देता।
ठीक वैसे ही मेरी हालत होती है। और थी। मत पूछो मैं कितना सिद्धत से आस लगाए बैठा था
उनकी तरफ वरदान के लिए। मैं इतना थक गया था – परेशान –
उत्तेजित भगवान की मंदिर की दिशा में मुंह किए लेट कर फोन चला रहा था।
कि अचानक ना- जाने क्यों मैंने मंदिर की तरफ से मुंह फेर लिया।
यह करते ही मन में ख्याल आया की भगवान की
भगवान की तरफ से – मुंह फेर लेने से, भगवान कमजोर नहीं होते !
मैं हंसा-पछताया-रोया कुछ बिना आंसूओं के।
भगवान की तरफ से मुंह मोड़कर मैं कमजोर हो गया।
तब समझ में आया भगवान :- भूमि_अग्नि-वायु-अकाश और नीर से हम बने हैं।
वह हमसे नहीं। तो हमारे होने या ना होने से कोई फर्क पड़ेगा नहीं।
चूंकि वह तब भी थे जब हम नहीं थे बल्कि उनकी तरफ से मुंह मोड़ लेने से हम और बेचारे हो जाते हैं।
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भगवान कमजोर नहीं होते
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ज़िन्दगी भर – ज़िन्दगी के लिए !