बदनाम
हमारे घर पर पंद्रह-बीस किलो गेहूँ आय थे। तो माँ ने उन्हें धो-के छत्त पर पसार दिया-सुखने के लिए और
मुझे आदेश मिला कि यही बैठ के इन गेहूंओ की रखवाली कर।
माँ का आदेश था तो टाल कैसे सकते थे।
ना – चाहते हुए भी बैठ गए – गेहूंओ की रखवाली में । पर पूरा वक्त, कौन बैठता है –
इतना धीरज तो था नही मुझमे।
तो कुछ देर नीचे आकर पानी-वानी पी लिया और थोड़ी देर बैठ के सुस्ताने लगा
कि अचानक माँ चिल्लाई कि “गेहूँ कौन देखेगा।
सारा गेहूँ तो कबूतर खा-गय होंगो । तुझे एक काम दिया था – वो भी सही-से नहीं होता निकम्में कहीं का !
जल्दी भाग के जा ऊपर!” आपको जैसे पता ही-है – माँ का आदेश टाल नहीं सकता।
ना चाहते हुए भी भाग के गया तो देखा- पार्टी चल रही थी- कबूतरों की-एक – दो नहीं, दस-पंद्रह थे।
पार्टी |
और ऐसा लगा कि उनमें डर नाम की कोई चीज नही है। वो मुझे देख के भी नहीं भागे।
तो मुझे गेहूंओ के और पास जाना पड़ा। और मुझे उनके पास जाते
देख वो ऐसे भागे जैसे गधे के सर से सिंग।
वो मेरे वहाँ पहुँचने पर भाग तो गाय पर ज्यादा दूर नहीं ।
मैंने कहा ना ” उनके दिल में डर नही था।
कोई छत के छज्जों पर बैठ गय – कोई टावर पर- तो कोई जहाँ जगह मिला वहाँ बैठ गया ।
और उन्हें देखकर मैं ! छत पर ही छायाँ ढूँढकर के बैठ गया – गेहूँओं से कुछ दूरी पर ।
और वो कुछ देर चुपचाप बैठे रहे और जब देखा मैं वहाँ पास चुपचाप बैठा हूँ ।
बैठ-गय |
तो गेहूं के पास से आकर वापस बैठ गए। “शी-शी -हुड़-हुड़” मैंने किया
पर इतने से वह सिर्फ पलक छपकाने वाले थे डर के भागने वाले नहीं।
तो फिर मुझे दो-चार पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े उनकी तरफ फेंकने पड़े।
जिससे हड़बड़ा कर वो काफी दूर भाग गए। पर वो तुलसीदास साहब कह गए हैं-
ना कि पेट की आग बड़वाॎगि्न से भी बड़ी होती है। यानी कि समुद्र
की आग से भी बड़ी पेट की आग होती है।
और जब इतने बड़े रचयिता ने लिखा है तो कुछ सोच कर ही लिखा होगा।
सोच गलत कह दिया अनुभूति और अनुभव से लिखा होगा। और यह बात हर किसी पर लागू होती है
चाहे उसके पास उदर हो या ना हो जैसे हम इंसान और वो समुद्र देख लो।
है बहुत विशाल पर इंसान को और-और-और चाहिए और समुद्र को जमीन।
और ये तो फिर कबूतर थे। वह भी जो इंसानी बस्ती में रहते हैं – आ रहे हैं।
जिनको इतनी मुश्किल से एक-एक अन्न का दाना मिलता है
और आज उनको दानों का भंडार मिल गया था- तो कैसे हटते।
वो डर से दूर थे पर भागे नहीं थे। और मैं भी उनके डर से वहीं बैठा था।
इस प्रकार वो मेरे दुश्मन थे और मैं उनके।
पर कुछ रियासतों तक उनके जान को जोखिम में रखकर मेरे वहां बैठने के बावजूद वहां गेंहू के पास आकर,
दाना चुगने की कोशिश करने से प्रभावित होकर जो दाने उन्होंने मेरे अनुपस्थिति में
बिछाई हुई पट्टी के नीचे बिखेर दिए थे,
उन्हें चुगने का आदेश या कहें कि स्वतंत्रता दे-दी थी- मैंने ।
इस प्रकार एक कबूतर के साहस करने से बाकी भी आ-गए।
जब-तक वो नीचे की चुग रहे थे – तब तक मैं शांत था।
लेकिन जैसे ही पट्टी पर हमला करते – मैं हिंसात्मक हो जाता।
जिससे वो भाग खड़े होते- इतने पर भी मैं उनका और वो छोटे उदर वाले मेरे दुश्मन थे।
मैं उनकी नज़रों में बुरा था और वो मेरे।
पर मैं ना बुरा था – ना वो। पेट दोनों की, भूख दोनों कि। हम कमाते हैं-
वह काफी मुश्किल से खाते हैं।
संघर्ष बराबर है। पर वह बेजुबान है, यह समझ कुछ दाने और
मैंने फेंक दिया अपने गेहूंओ से दूर उनके लिए,
पर वह बड़े वाले पर ही नजरे गर आए थे। जो कि स्वाभाविक है।
मैं अपनी पेट के लिए उन्हें वह धो-के पसारा था
और वह वहां उन्हें देखकर पसरे आ रहे थे। गलत हम दोनों गलत नहीं थे – सिवाय एक-दूसरे की नजरों के।
ऐसा ही कभी-कभार या सामान्यतः यह हमारे साथ होता है। मैं यहां इंसानो की इंसानों के द्वारा हुए गलत-
सही की बात कर रहा हूं।
वह भी वह वाले जिसमें आदमी दूसरे आदमी की नजरों में गलत होता है। हकीकत तो कुछ और होती है।
पर हमें लगता है कि उसने हमारे साथ बहुत गलत किया और उसे लगता है
कि उसने सिर्फ वही किया जो करना चाहिए था।
और यह हर किसी के साथ होता है। जिंदगी में। तो बस यह कहना चाहूंगा कि
आप अपना पेट देखें वह जरूरी है
बस औरों की पेट पर लात ना मारे। अपनी हक रक्षा करें चाहे जैसे भी
औरों कि हकों को ना मारे।
फिर उसके बाद भले ही गुंडे – बदमाश समझे जाओ औरों की कहानियों में
पर आप सच में खुश रहोगे अंदर से।
जो कि इस बह्राड में सबसे बड़ी चीज है। बस आप अपने आप को सही सिद्ध करने की कभी-
कोशिश करने मत लग जाना
बस कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर।
क्योंकि कभी-कभी औरों के नजरों में हमें बुरा बनना पड़ता है:- जिससे कि वो नायक/हीरों बन पाए!
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