कल्पना और यथार्थ
कल्पना कहती है – तू और बुन मुझको –
यथार्थ कहती है – तू उलझकर रह जाएगा मुझमें –
कल्पना प्रेरणा देती है – यथार्थ दर्द ,
कल्पना यथार्थ की नींव है – यथार्थ कल्पना की जन्मदाता,
दो पहलू है यह एक ही सिक्के के,
पहलू :- कल्पना और यथार्थ
सिक्का 👉 जिंदगी ,
जिस तरह सिक्का उछलता है और आसमान की तरफ बढ़ता है वह कल्पना है। उस सिक्के का जमीन पर वापस आना यथार्थ । इसका मतलब यह नहीं कि यह कल्पना का अंत है। इसका अर्थ होता है यह कल्पना की जड़ है। और जड़ पृथ्वी पर ही लगता है – आसमां में नहीं।
और यथार्थ को कल्पना की दुश्मन मानना कल्पना की मृत्यु है।
और कल्पना को यथार्थ के सामने कुछ ना मानना सृजन का दुश्मन।
और जैसे “हर चीज की अति बुद्धि भ्रष्ट कर देती है!” ठीक उसी प्रकार कल्पना का ज्यादा या यथार्थ का ज्यादा होना एक पहलू को ही नहीं – बल्कि सिक्के को ही मार देती है। इसलिए यथार्थ और कल्पना संतुलित होने चाहिए और याद रहे यह एक दूसरे की दुश्मन नहीं बल्कि पूरक है। जैसे चंद्रमा के धब्बे और चांदनी एक दूसरे के।
और हमेशा याद रहे यथार्थ तब तक नहीं पनप सकता जब तक कल्पना ना की जाए और यथार्थ का निर्माण कल्पना को लक्षित कर के औजारों (आज + मेहनत )का प्रयोग करके सिद्ध होता है। इसको पाना आसान नहीं होता।
क्योंकि सृजन तत्परता का नहीं – समृद्धि का विषय है।
कल्पना और यथार्थ एक दूसरे के पूरक थी, है और रहेगी।
कल्पना-यथार्थ के लिए उतनी ही जरूरी है:-
जितनी की आत्मा भौतिक शरीर के लिए!
1. राधाकृष्ण जैसा इश्क – होना किसकी निशानी है:- राधे- श्याम
2. मन की कलुषिता को मिटाया कैसे ? 👈🤔🤔
3. आखिर क्या संदेश देना चाहते है भगवान कृष्ण – अपने खून से लिखें खतों से 👈🥀
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ज़िन्दगी भर – ज़िन्दगी के लिए !