साइकिल
मोहन एक नई साइकिल ख़रीदता है।
जैसे नई-नवेली दुल्हन घर की लाज रखती है, वैसे ही हर नई चिज उस कंपनी की लाज रखती है।
यानि की शुरू-शुरू में तो वह ऐसे चलती थी कि कुछ पूछो मत ।
और उसके दोनों की टायर्स की तो बात ही निरली थी ।एक दम मदमस्त-मजबूती और इलास्टिक ।
मगर जैसे बहु थोड़ी पुरानी हो जाति है और घर का दायित्व अपने हाथों में लेती है। और फिर लाज की तो मत पूछो !
ठीक वैसे ही वैसा ही मोहन ने इस बाइसिकल के साथ किया एकदम एक सास की तरह ,
बाइसिकल पर बहुत सा-समान रख लेता और दूर-दूर तक की यात्रा किया करता।
इससे वह साइकिल खराब होती गई और मोहन बिच-बिच में मैकेनिक के पास जाता रहा।
अब साइकिल के दो तीन-साल हो गए थे। मरम्मत होते होते साइकिल ऐसे हो गई थी,
जैस उम्र बढते-बढते नौजवान हो जाते हैं यानि की बुढ़े।बाइसिकल भी बुढी होती रही
और यह मैकेनिक के पास जाता रहता ।मगर इसकी बाइसिकल अब ज्यादा तेज नहीं चलती थी।
क्योंकि उसकी आदत शुरू से ही समान लाद के लेने कि थी, जैसे ट्रक पर समान लाद रहा हो।
तो कभी पिछे ज्यादा भार हो जाता जिस रफ्तार कम हो जाती है
तो कभी आगा ज्यादा भार हो जाता है जिससे कठिनाई हो जाती है।
मगर भाई साहब अपने धुन में होते हैं और साइकिल की बात कर कभी ध्यान नहीं करते हैं।
जैसे हमारे मिडिल क्लास वाले जो जब तक। बिमारी बढ़ ना जाए तब तक दवा नही लेते।
और इसकी यह बिमारी साइकिल को 4 सालो में ही ले डूबी।
और वो उस साइकिल को कबाड़ वाले को, लोहे के भाव बेच आता है।और फिर एक नई साइकिल लेने चला जाता है।
मगर यह एक बार नही था।इसने इससे पहले भी कई बार साइकिल खरीदी और खटारा बनाया।
‘कभी साइकिल के पिछे ज्यादा भार डालकर तो कभी आगो भार डालकर !’
…वरूण
ज़िन्दगी भर – ज़िन्दगी के लिए !