ना-जाने मैं कैसे लिखने लगा
मेरे सारे दूधिया दांत तो टूट गए हैं – पर बात आज उसी दौर की है।
जब मेरी दूधिया दांत शायद एक या दो साल पुराने हो चुके थे।
मेरी -3 , महीने बाद की फोटो |
मेरी स्मरण शक्ती बचपन की उतनी तेज तो नहीं, पर लोड़ीया भूल जाऊ तो शायद आज भी सही से सो-ना पाऊं,
यह ख्याल इस सवाल पर आया ना जाने मैं कैसे लिखने लगा।
मुझे मेरे बचपन के उस समय ले गया जब चांद रानी नहीं – मामा हुआ करता था।
यह रिश्ता भी चांद और मेरा लोड़ियो ने जोड़ा’मां’की। मां बताती है, कि मैं कितना शैतानी करता था।
दिन को सोता – और रात को रोता था। पर वो अगर लोड़िया नहीं सुनाती तो शायद मेरी पलकें दिन भर आराम करने के बाद –
दुबारा आराम ना करने लग जाती। “चंदा मामा दूर के पूवा पकावे खिड़ के, अपने खाए थाली में, मुन्ने को दे प्याली में,
मैं ठीक जैसे ही वह प्याली टूटती, मुन्ना रोता और मैं अक्सर उठ जाता।
तो कभी-कभी वह लोरी के रूप में मुझे ,’ क, ख, ग, सुनाती तो कभी-कभी एक-दो-तीन, वन-टू- थी
की प्रतिध्वनिया मुझसे सुनती। जाहिर है कि ए-बी-सी-डी भी उन्होंने सिखाया। आप सोच रहे होंगे कि यह मैं कहां से दूधिया दांत,
ए-बी-सी, क- ख- ग, 1-2-3 की बात करने लगा। मैं भी यही सोचता पर उससे पहले याद आया कि नींव के बिना दिवार नहीं खड़ी होती –
तो महलों की बात तो छोड़ ही दो । मैं कैसे लिखने में आया यह बात उतनी ही विश्मय से भर देती है मुझे –
जितनी कि एक नटखट नादान सी, बिटिया का बड़े होकर मां,
बन के अपनी मां – दादी -नानी से ही सुनी – सुनाई शब्दों की रासलीला को नादान-नासमझ –
नटखट को शांत करने के लिए, लोड़ियो सुनाने का अनजान सफर की शुरुआत करना।
पर यहां पर वह नटखट – नादान – बालक मैं हीं था।
और उसके मन को शांत करने के लिए शब्दों की रासलीला रचने वाला भी मैं ही था।
यह तो नींव की बात हुई। सावाल अब दीवारों का तो जवाब मिलता है,
मास्टर जी की छड़ी, मैडम जी का कलम, काला बोर्ड, मेरे ही उम्र के और लड़के और लड़कियां,
सुबह की प्रार्थना, एक बैठने की सीट, एक भारी बैग, उसकी कई मधुर और खट्टे पल।
ये तो मेरी नींव और दिवाले है पर इन सब में मैं कब से रहने लग गया – कैसे मेरा मन रम गया,
कुछ पता नहीं। पर एक किस्सा याद आता है मेरी एक सहपाठिका का जो कहती थी कि,
कलम और किताब मेरी गर्लफ्रेंड है। वह मजाक में कहती थी क्योंकि मेरी कोई दिलरुबा नहीं थी
और ना मुझे जरूरत थी ।आ पर जो चाहे समझ ले । उसका वह मजाक एक व्यंग्य था, कि सच में उसका व्यंग्य मेरा सच साबित होगा ।
पर आंगनबाड़ी के रोना और बारहवीं का आखिरी दिन का आंतरिक रोना ।
इन दो आंसुओं के पलों की दौर ने मुझे रोग लगा दी , – शब्द – अर्थ’ की रासलीला की दुनिया का।
मुझे नहीं पता कि मैं कैसे लिखने में आया ।
मुझे सही से नहीं पता कि मैं कैसे लिखने लगा ? पर वह दौड़ दसवीं का था जब मैंने कुछ तुके जोड़ना शुरू किया था।
पर वो जोड़ना इसलिए शुरू हुआ होगा क्योंकि नींव में मेरी लोरिया थी
और दीवारों में मोहब्बत- व्यंग्य और राजनीति जो काफी था लिखवाने के लिए।
और वैसे भी पहले से मै किताबों पर मरता था।
2. इंसान कब:- क्या हम सब इंसान हैं?
=======( Meri Kitabe )========
ज़िन्दगी भर – ज़िन्दगी के लिए !