आंख बंद करके – जागना ?
रात जितनी मनमोहक होती है –
उससे ज्यादा मनमोहिनी – सुबह की नींद होती हैं !
सुबह के 6:30 हो गए थे। और अभी तक मेरी आंखें खुलना नहीं चाहती थी।
अमूमन ऐसा होता नहीं है कि मैं काफी देर तक बिस्तर में पड़ा रहूं,
क्योंकि बचपन से मां ने ऐसा करने की इजाजत नहीं दी मुझे।
मुझे याद है जब मैं शायद 5 या 6 साल का था 5:30 बजे सुबह के ट्यूशन जाता था।
यह गांव की बात थी, पर शहर आकर भी सिर्फ जगह और जरूरत बदली पर नियम नहीं।
माना पापा को काम पर जाना रहता था –
मां को खाना बनाना रहता था। पर हम तो स्कूल नहीं जाते थे।
लेकिन हमें फिर भी जल्दी उठा देती थी और यह नियम 12वीं कक्षा तक ऐसे ही चलता रहा।
पर जैसे ही मैंने 12वीं खत्म की और काम पर जाने लगा। तो जिस उम्र तक सिर्फ खाया –
खेला और किताबों के बोझ झेले थे।
उसको गरबे और चारों के भोजपुरी लगा तो थक गए लगा और , जिसके कारण खुराक अभ बढ़ा दी ।
और बिस्तर में भी पूरी-पूरी समय अवसर देखकर सोने लगा।
तो आज इन्हीं अवसरों की सार ने मुझे सुबह नींद टूटने के बाद भी,
मुझे आंखें बंद करने पर मजबूर किए रखा। मेरी आंखें खुल चुकी थी पर मैंने बंद किए हुए था –
ताकि अच्छे से पूरी हो पाया।
पर पानी पीने के बाद निर्जला व्रत करते देखा है क्या ? शायद किसी को देखा हो। पर उस व्रत से कितनी संतुष्टि मिलती है ।
वह वैसे व्रत करने वाले को पता ही होगा। ठीक वही मेरी हालत थी। मेरी नींद खुल चुकी थी।
परिवार वालों की ध्वनियां कान पर पड़ रही थी।
कोई चाय के घूंट भर रहा था – तो वहीं कोई रोज-रोज के सुबह-
सुबह चूल्हा चौका से त्रस्त होकर सदियों पुराने राग अलाप रहा था ।
मां पूजा की घंटी बजा रही थी , तो वहीं छोटी बहन नहा के स्कूल के लिए तैयार हो रही थी।
इन सब के शोर मेरे कानों पर पड़ रहे थे। मैं फिर भी इन सब को नजरअंदाज कर
आंखें मुझे ली और सोचा चलो नींद पूरी करते हैं।
पर ना नींद पूरी हो रही थी । और ना ही सही से मैं जाने को तैयार था।
यह ठीक – वैसे ही था।
जैसे खुद की घड़ी रोककर समय रुका हुआ है ।
यह सोचना। मैं यह सोच कर अपना समय ले रहा था। पर हकीकत यह थी कि समय बीत रहा था
और मेरी झूठी कोशिश मुझे संतुष्ट ना कर पा रही थी।
और ना ही वक्त को ही आंखें मूंदकर रात है यह कहने का ढोंग भी करवा पा रही थी।
इन सब से हुआ तो बस इतना कि कीमती समय ढलता रहा और ना
मैं सही से सो पा रहा था
और ना जंग पा रहा था।
और बस ख्वाब से सच्चाई को ठुकड़ा रहा था। जिससे आगे चलकर नुकसान मेरा ही होने वाला था।
और इस घटना से मुझे – एक घटना और याद आई। और वह यह कि पढ़ने को तो हम कभी-कभी पूरा दिन पढ़ते थे।
वह क्या है ना , जी की हम कभी-कभी सारा दिन कॉपी – किताब लेकर बैठे रहते। और हमको लगता था कि हम पढ़ रहे हैं।
फिर भी हम इतना पढ़ने के बाद भी उतना ही रहता जितना उससे पहले या उसे और अधिक कम हो जाते।
पर मन को दिखाने को तो हम सारा दिन पढ़ रहे होते थे। पर इससे ना रिजल्ट ठीक होता था – ना वक्त।
होता तो बस इतना कि मन मानता कि हम पढ़ रहे हैं और वही तन में बेचैनी बनी रहती।
1. किसी भी काम की शुरुआत करने के लिए – सबसे ज्यादा जरूरी चीज क्या होती है ?
2. जो ढूंढ रहे हो – वो मिलने योग्य है कि नहीं ?
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ज़िन्दगी भर – ज़िन्दगी के लिए !,.