नानी-गांव
कहने को तो हम उछल पड़ते थे। जब भी सुनते कि नानी के गांव जा रहें हैं।
जाते तो नानी के गांव थे और ऐसा नहीं था कि एक-दो बार गए हो। नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं था
मगर हम नानी गांव कितनी बार भी गए हो। नानी को कभी नहीं देखा ,
देखा तो मेरी मां ने भी नहीं था ।
बस एक सांवली सी स्मृति उनकी आंखों के सामने रहती है
क्योंकि नानी तभी गुजर गई थी जब मात्र 5-6 वर्ष की थी।
मगर नाना ने नानी की कमी भाई हमें तो बिल्कुल भी खलने ना दी थी।
हम जब भी जाते हैं कम से कम चार चक्कर तो मिठाई वाले का लगा ही आते।
और कही बाजार घूमने निकल गया मिठाई वाले की दुकान में बैठकर ही आते।
गांव कितना शांति था मत पूछो बड़ा सा चित्र दिवाली लोगों के दिलों पर भी थी।
मेरा जो नानी गांव था वो लक्ष्मीणीया यानिकि लक्ष्मी की गांव कहलाता है।
शांति और सुख समृद्धि नानी गांव में हर जगह गांव की हरियाली जितनी ही छाई थी।
सुहाना मौसम शांत और हंसमुख स्वभाव,उमंग भरी दोपहरी और
परिवार वालों के साथ साथ पड़ोस वालों के साथ शाम को बैठना।
याद आता है वह नानी गांव का दृश्य। लड़ाई बड़ी कमी हैती और
एक घर की चूल्हे की आग से कई घरों के जलाता।
सारे एक साथ खाना बनाने बैठते हंसते-हंसते बातें करते खाना बनाते। और बच्चे मिलकर घर के आंगन और बूढ़ों को मुस्कुराना सिखा देते।
और शाम होते ही पढ़ने जाते और दो घंटा पढ़ते। चुकी नानी गांव में एक काका होते थे (कहने को तो वह रिश्ते में काका नहीं लगते मेरे,
मगर गांव के सारे बच्चे उन्हें काका कहते सो मैं भी कहता) उन्होंने गांव के पंचायत में बात कही जिस पर सारे गांव वालों ने हामी भरी।
बात थी कि जो काका थे उन्होंने कहा था कि मैं सारे गांव के बच्चों को शाम होते ही पढ़ने बैठा दूंगा।
उसके नियम अनुसार वो शाम को 6:00 बजे एक घंटी बजा देते । और सारे बच्चे भाग-दौड़कर हाथ-मुंह-पैर दो कर पढ़ने बैठ जाते है।
तब वह बूढ़ा काका लालटेन लेकर गांव के चक्कर लगाने लगता और जो भी बच्चा उसे पढ़ते हुए नहीं मिलता डंडे से पीट देता।
इस प्रकार गांव हर प्रकार से सुखी था। गांव के बूढ़े- नौजवान-बच्चे सभी अपने अपने कामों में व्यस्त और आनंद में रहते।
मगर जब से मैं शहर आ गया तब से बिरले ही 5-6 सालों में गांव जाता हूं।
लेकिन अब जाता हूं तो शांति तो मिलती है और ताजगी भी मगर लोगों के अंदर जो
एक-दूसरे के लिए जो लगाव था वह कम हो गया था। वह काका भी मर गया था।
और जो बूढ़े थे वह अब कई मर गए थे। तो बाकी परिवार की जड़ की तरह नीचे दबा दिए गए थे।
। अब बस गांव जाता हूं तो ताजी हवा ही मिलती है और आनंद। मगर वो जो लोगों के अंदर हरियाली थी
वह गायब हो चुकी है। घर के चूल्हे की आग अब तो नहीं बंटती मगर आग अब हर घर में सबकी अपनी-अपनी लगी पड़ी है।
मेरा नानी गांव ना जाने कब वापस उस खुशहाली को देख पाएगा जो मैं देख पाने में असफल हो रहा हूं।
रिश्ते कमजोर हो रहे हैं। भाई-भाई से लड़ रहे हैं और बुजुर्ग दरकिनार किए जा रहे हैं।
मगर एक आस अभी भी जिंदा है। क्योंकि गांव आज भी जिंदा है! हरियाली आज भी है!
और चूल्हा आज भी चलता है। बूढ़ो के आंखों पर चश्मा सही मगर उन्हें भी दिखता है।
मेरा नानी गांव अभी-भी मुझे नाना कि वजह से प्यारा है।मेरी गर्मियों की छूट्टी का ठिकाना है।
मेरा नानी गांव मुझे आज भी प्यारा है।
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नानी-गांव
नानी-गांव
नानी-गांव
ज़िन्दगी भर – ज़िन्दगी के लिए !