बंसी
पता नहीं क्या नशा है या आदत लोग बंसी उठा चले जाते हैं। पोखड़ा के तट पर मछली पकड़ने को।
और होड़ लगाते हैं कि मैं तुझसे ज्यादा मछली मारूंगा, तो मैं तुझसे। खैर आज मेरी नजर बंसी पर आकर अटकी है।
उससे थोड़ी दुश्मनी है क्योंकि जिस पर भोजन देती है उसी नोक से भोजन की आस भी करती है।
भोजन की लालसा देकर मछली को ग्रास भी बनाती है मगर दुश्मनी भी गलत है
वह हमारे लिए ही तो भूखों का हमारी भूख के लिए शिकार करती है।
वह बंसी है, बांस की बनी हुई उसमें लंबी धागा और उसकी छोड़कर एक नुकिला नोक लगी हुई है।
उस नुकिले नोक को आटे की एक पतली परत तो कभी-कभी किसी छोटे कीड़े को उसके ऊपर लगा देते हैं।
ताकि उसकी असलियत छुपा रह सके। और शिकार उसे अपना शिकार समझ वहां आ सके
और मछलियां बेचारी भूख की मारी बिना सोचे समझे अपने पेट की आग बुझाने को चल पड़ती है। अपने गंतव्य तक।
और जैसे ही उस नोक पर लगी भोजन को ग्रस करती है दिखावट पेट में और असलियत जबड़े में फंस जाती है।
और यह बुरी तरह लहू-लुहान हो कर झटपटाने लगती है। और फिर जो बंसी को पकड़े होता है,
वो अपने भूख की ईलाज ढूंढ लेता है। और पानी के नीचे रहने वाली मछली पानी के ऊपर आ-जाती हैं
और अब उसे उस नोक के साथ-साथ वो लंबा धागा भी दिख जाता है। जिस पर धागा टीका हुआ है वो लकड़ी भी दिख जाती है।
और जितना वो दिखता जाता है। उतना वो झट-पटाते जाता है। और अंत में उस कढ़ाई को भी देख लेती हैं, जिसमें उसे पकना होता है।
इसलिए कहते हैं “फर्स्ट इंप्रेशन बिल बी द लास्ट इंप्रेशन” मगर इंसानों को और किताबों के लिए यह तरीका अच्छा नहीं।
क्योंकि दोस्त भी दुश्मन बन जा सकता है और दुश्मन भी दोस्त बन सकता है।
इसका जीता जागता सबूत हमारी लोकतांत्रिक पार्टियां होती हैं। जो गठबंधन सरकार की नीति पर टिकी होती है।
इसलिए कहते हैं दिखावे पर मत जाना वर्ना कहीं अपनी भूख की तृप्ति करने के काम आओगो।
इसलिए वो मछली मत बनो।
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2@..जैसा दिखता है:- वैसा होता नहीं ( बर्बादी अक्सर बर्बादी नहीं होती)
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(बंसी)
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