शरीर से आत्मा का बिछड़न
काफी जटिल प्रक्रिया थी – उन हड्डियों में जान- ना थी – मास लटके पड़े थे – नसे ढीले पर गय थे- चेहरों पर झुर्रियां थी
और मुँह में दांत एक भी नहीं थे। पर फिर भी काफी जटिल- मुश्किल प्रक्रिया थी -वो ।
शरीर से आत्मा का बिछड़न की प्रक्रिया । अभी हाल ही में तो जन्म हुआ था। उसका 80 साल पहले ।
दस साल तक बच्चा रहा 20-21 साल तक बचपना। 40-45 तक विषयों में व्यस्त 60 तक कमाने में।
बचे बीस वो पतझड़ और बसंत के आने-जाने में कट गए। मौका ही कहाँ मिलों इसे अपने और अपनों के साथ बैठने का ।
मिलना चाहता था। सबसे एक आखरी बार – हर रूठे को मनाना चाहता था- फलनवा-चिलनवा,
सबको पहचानता था, सब उसके पास थे। पर अजीब वो प्रक्रिया थी – सब अपने थे
पर वो जिसके कारण अपना था- वो बस अब उसकी नहीं थी ।
उसको जाना था – कैसे भी। पर इतनी आसानी से कैसे जा-सकता था ।
भले ही अभी – अभी कुछ दशकों पहले पैदा हुआ था। पर चौबीस घंटे उसके साथ रहा था –
और हम यहाँ चार- पाँच दिन किसी ईलाके में रह ले तो जाते समय, रोते हैं।
वो तो आठ दशक बीता चुकी थी। हमेशा साथ रही थी । बिछड़ना आसान कैसे होता ।
भले ही घर का एक-एक भाग खंडहर हो चला था । नालियाँ सड़ने लगी थी –
खिड़कियाँ रोशनी नहीं ले पा रहीं थीं। रहने का कोई स्थिति नहीं थी – और जाना था – किसी हाल में।
क्योंकि जो आया है -वो जायेगा।
पर आत्मा के लिए भी ये काम – आसान नहीं था। वो काफी सालों से खुद को उस घर को मालिक और
खुद ही को घर मान चुकी थी। बिछड़ना आसान कैसे होता – वो हर जानने वाले को अपना मानती थी।
और जिस पर हक होता है – जो हमारे हिस्से में होता है – उसे किसी हाल तक नहीं छोड़ा जाता –
तो वो कैसे छोड़ती । घर का एक-एक खंडहर कह रहा था निकल जाने को –
पर वो निकलने को राजी नहीं थी –
क्योंकि वो उस समय वो शरीर थी – जो आठ दशकों से बनी हुई थी।
उसने हर काम किए जो मन ने कहा ना कि उसने – क्योंकि वो मालिक तो थी –
पर खुद को ही घर समझ बैठी थी। तो ऐसे में नौकर ने फायदा उठाया और
गुम रखा उसे इस बात में कि वही घर है – और घर उसी में है।
घर से अलग – उसका कोई अस्तित्व नहीं है।
वो घर से अलग नहीं-ना घर उससे अलग है। वो शरीर जिससे काफी शरारतें की,
जवानी से विषय-वासनाओं की भोग करते रहे- जो आनंददायी था।
ऐसे में उससे बिछड़ जाए तो आनंद कहाँ से आयेगा। मेरे सारे अपने कहाँ जायेगो?
इन सवालों के उधड़ – बुन में शरीर का हर भाग द्रवीत हो रहा था।
उस खंडहर में जान ना थी पर ना जाने उसमें उतनी शक्ति कहाँ से आ गई थी।
जो अपने मालिक को बांधे रखीं थीं।शरीर ने- मन ने- दिमाग ने -आत्मा ने- ने खूब कोशिश की।
मालिक को बांधे रखने की। पर मालिक को जैसे ही इसका अनुभव हुआ कि वो तो इनका मालिक है।
खुद उनमें नहीं है।
तब-जाके दिमाग से – मन से- शरीर से बाहर आ पाया। पर ये प्रक्रिया काफी दुखदाई और संकटमई थी।
लेकिन तभी-तक जब – तक वो शरीर थी। जैसे ही वो आत्मा हुआ – अत्मज्ञान प्राप्त हुई।
उसके बिछड़ने में एक क्षण भी नहीं लगा । उसी शरीर से जिससे उसने संसार के सारे ऐश्वर्य भोगों थे।
और भोगना चाहती थी। लेकिन तभी-तक जब-तक वो घर (शरीर ) थी।
जब घर तर लेकिन जैसे ही मालिक बनी-उसका संचालक बनी घर(शरीर) छोड़ दिया – बिना मादकताओं की ओर झुके।
ठिक इसी प्रकार हम हैं- हमारी आत्मा की ही बात कर रहा हूं मैं।
श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि कर्म में लिप्त हुए बिना कर्म करो।
पर हम हमेशा कर्म में आसक्ति होकर – लिप्त होकर ही कर्म करते हैं।
जिससे कि जब हम गिर जाते , हार जाते हैं। तो सत्य में मान जाते कि हम हार गय-
जबकि असल में / वास्तविकता में हारी हमारी मेहनत की हुई होती है।
क्योंकि जितना उस कर्म की होने के लिए मेहनत की जरूरत थी –
उतनी शायद हमने मेहनत नहीं की। इसलिए हार हुई । पर उसके हार से हमारे साथ यह होता है
कि हम मान लेते हैं कि
ये हमारी ही हार है – क्योंकि मेहनत तो हमारी ही थी।
लेकिन अगर हम कर्म लिप्सा में ना डूबे होते – तो हम यह कहेंगे की एक बार और कोशिश करता हूं।
लेकिन यह तभी संभव है जब आप उस काम में लिप्त यानिकि जुड़े नहीं है-
बस आप कर्म को कर रहे हो क्योंकि आपको लगता है कि वो आपका फर्ज है।
क्योंकि उसको फर्ज समझोगो तो उसे करते रहोगे। लेकिन हकदार समझोगे तो
एक-दो-तीन-चार बार कोशिश करके बैठ जाओगों। क्योंकि हकदार को जब – तक यह एहसास है
कि के वो उसक है – तभी तक के उसका है-लेकिन जैसे उसे पता चलेगा की उससे-उसका हक ले लिया गया है
क्योंकि कोई और उसके योग्य है – तो हकदार यह समझ लेगा कि वो सच में उसके लायक नहीं।
लेकिन वही पर एक फर्जदार व्यक्ति तब-तक नही रूकेगा जब तक उसका फर्ज पूरा नही हो जाता ।
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ज़िन्दगी भर – ज़िन्दगी के लिए !