वृध्दाश्रम
माँ हम बाहर जा रहे है,वर्ना तुझे तो पता ही है।
मैं तेरे बिन नही रह सकता। हम तुझे यहाँ कुछ दिनो के लिए रखने आए है।
मगर तु फिक्र मत कर, मैं जल्द तुझे लेने आ-जाऊँगा।माँ को समझा के रमेश निकल गया,
अपनी बीबी और बच्चे श्याम को लेकर।माँ ने बस एक मुस्कान झलका दी।
मगर वो हकीकत जानती थी।बस उसे आदत-सी हो गई थी दर्द को झुठलाने की ।
और वो इसमे माहिर हो गई थी।माँ वही दरवाजे पर खड़ी बेटे की तरफ देखती रही,
मगर बेटे ने पलटने तक की जहमत ना उठाई। वो गाड़ी मे बैठा और चला गया अपने घर ।
माँ वही दरवाजे पर बैठ गई।एक आदमी अंदर से आया वृध्दाश्रम से और बोला माँ-जी, आइए ना अंदर आइय।
वहाँ क्यूँ बैठी है? जो होना था-सो हो गया। अब वो लौट कर नही आने वाला।
आपको यह सच्च स्वीकारना ही पडेगा। आइए मै आपको-आपके उम्र के ढेर सारे लोगो से मिलता हूँ।
कहने को तो वो भी परिवार वाले है, मगर सिर्फ कहने भर ही उनका परिवार है।
बाकि हकीकत तो यहाँ कैद है।सुशीला (यानिकी रमेश कि माँ) अंदर जाने की कोशिश मे एक झूठी मुस्कान झलका देती है।
मगर उसके पैर वही दरवाजे पर ही जम गय थे।
अब मै भी बोल पाऊँगी-बाते कर पाऊँगी तो दूसरी तरफ अपने
क्योंकि इन्होने इस बार सच्च को झुठलाने नही स्वीकारा था।
मगर फिर भी माँ तो माँ होती है दिल मे बेटे की परछाई अभी-भी थी।
मगर मै कभी उस तरफ नजर भी नही करना चाहती मै।
ज़िन्दगी भर – ज़िन्दगी के लिए !