प्रश्न
प्रश्न ?
तुमने वही सीखा जो सिखाया गया तुम्हें। तुमने उन्हें-ही जाना-जो मिलवा गय तुम्हें।
इसलिए वैसे ही- जीए, जैसे बताया गया तुम्हें। कभी सवाल किया; किन-से मिलवाया गया? क्यों मिलवाया गया?
फिर दिक्कत क्यों है, तुम्हें ऐसे जीने में ? कभी सवाल ये पूछा नहीं तो -यह हक आपको दिया किसने कि- ऐसे जीने पर सवाल करें🤔।
पर खैर सवाल किया ना। यह जरूरी है। पर इससे भी ज्यादा जरूरी है, कौन से सवाल और कब पूछा गया?
क्योंकि सही वक्त पर गर ना पूछा जाय, तो सवाल कि एहमियत कम हो जाती है।
सवाल पूछना स्वतंत्रता की निशानी है और स्वतंत्रता कि पहली शर्त।
लेकिन आपने कभी सवाल नहीं पूछा और आपको लगता है कि आपको सब आता है।
तो आपने सच में कुछ नहीं सिखा।
सच में सब नहीं आता।
क्योंकि प्रश्न – प्रतीक है गलती की गुंजाइश की- और गलती सुधार की- सुधार प्रगति की- और प्रगति इंसान की।
और ऐसे में आपने अगर कभी सवाल ही नहीं पूछा-तो क्या आप सच में इंसानों वाली जिंदगी जी रहे हैं?
चलो मान लिया आपके दो हाथ है- दो पैर है- दो आँखे है- और आप करोड़ों तरह दिखते हो –
पर क्या दिखना बाकियों की तरह- प्रूफ है कि आप इंसानों की तरह jee रहे हो।
आप पूछोगों कि यह हा यह कैसा सवाल है? बेतुक लग रहा है-ना ।
पर जितना बेतुका यह प्रश्न है -उतना ही पते की बात है- इसके उत्तर में ।
बाकियो की तरह दिखने का यह मतलब नहीं की आप भी वही है। आप भीड़ को इकट्ठा मान सकते हो-
पर वो भीड़ सिर्फ एक-एक नर की अपनी सहमति हैं। वो भीड एकांत से निर्मित है।
चाहे वो एकांत किसी के प्रभाव में बना है या अभाव में या फिर अपने सोच-विचार से।
भीड़ जैसा दिखता हे वैसा होता नहीं और जैसा होता है- वैसा दिखता नही ।
उसी प्रकार आपका दो हाथ- दो पैर – या दो आँखें होना आपको इंसान तो दिखा सकता है-
पर दिखना और होने में उतना ही फर्क है -जितना रेजिस्तान की मिट्टी और समुद्र की मिट्टी में।
और अगर आपने अभी तक यह प्रश्न नही पूछा तो फिर क्या ही पूछा? प्रश्न? हां!
कौन-सा – कि फिर आपको कैसे पता कि आप इंसानों वाली जिंदगी जी रहे हो?
क्या आप सच में स्वतंत्र हो? क्या आपको जो पढ़ाया गया वो मूल है-
जो बताया गया वो यर्थाथ है? -जो बताया गया- सत्य है?
गर नहीं। तो मेरा एक प्रश्न है: कि आपको कैसे पता ही आप जैसे, जी रहे हो वो ही सही तरीका है?
आप स्वतंत्र हो? कैसे? यानी कैसे ? सिर्फ मां- बाबा से झूठ बोलकर बाहर घुम आना,
किसी को बुद्ध बना के खुद को होशियार समझकर – जिसको जब चाहे -जो चाहे बोल देना।
क्या बस यहीं तक है आप की स्वतंत्रता कि आपका जब मन किया तो सो गया देर-से या सवेर से,
जब नींद टूटी तो उठ गया सवेरे-सवेरे या ढाई-दो बजे। दोस्तों ने जबरदस्ती कर ली तो दो सूटे मार लिए।
किसी को देखा और प्यार समझ लिए।
क्या यह आपकी सच में स्वतंत्रता है या मन का मनमाना-पन जिसका पता नहीं कि कहाँ?
पर हमको लगता है कि यह है। क्योंकि औरो-से यही सुना है -या बताया है।
क्या आपके सच की सीमा बस यही तक है । क्या आपके यकीन की सीमा बस यही तक है।
अगर हां।
तो आपका उत्तर आपके पास है। पर बस सच में सुनने की क्षमता रखना – खुद को आईने में उताड़ने की हिम्मत रखना !
यह प्रश्न नही पूछा जायेगा किसी स्कूल की किताबों में- ना-ही किसी देश की संविधान में।
क्योंकि कोई नहीं चाहता कि वो आईने में उताड़ा जाय। यह प्रश्न आपको ही पूछना होगा क्योंकि कोई और आप नहीं है ।
और यकिन मानिए अगर आप प्रश्न पूछने को बेवकुफी समझते हैं-
तो खुद से प्रश्न पूछना कि क्या आप सच में समझदार हो? स्वतंत्र हो ? अगर आप देखों
अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति हो या कोई सी भी क्रांति हो या 1947 की आजादी।
या गांधी का बाबू बनाना और नेताजी को नेता मानना। सभी प्रश्न की खोज है।
18 57 की क्रांति चर्बी वाले कारतूस नहीं बल्कि, क्या मैं सच में हिंदू हूं?
और क्या मैं सच में मुसलमान हूं? का प्रमाण है ! 1947 की आजादी आजाद हिंद फौज या गांधी नहीं बल्कि ऑपरेशन था
भारतीयों का कि क्या हम सच में भारत भारत के निवासी है? क्या सच में भारत हमारा है?
गांधी का राष्ट्रपिता-बापू कहलाना एक सवाल था कि देश के युवा कैसे होने चाहिए ?
नेताजी का नेता कहलना एक सवाल था कि देश के नेता कैसे होने चाहिए?
मूर्तियों का बनना एक सवाल था कि इंसानों का विश्वास कैसा होना चाहिए।
मीरा की प्रतीक्षा एक सवाल थी कि प्रेम कैसा होना चाहिए ?
यकीन मानिए हम सब सिर्फ और सिर्फ अपनी प्रश्नों की खोज हैं कभी सोचा है
आपने कि किताबों में सिर्फ प्रश्न क्यों दिया जाता है? उत्तर देकर प्रश्न क्यों नहीं किया जाता है?
उत्तर यह है कि प्रश्न असीमित हो सकते हैं? भेद प्रकट कर सकते हैं? उत्तरों के अस्तित्व पर सवाल बन सकते हैं?
यकीन मानिए उत्तर प्रश्न कि कसौटी पर ही पनपे है!
कोई भी उत्तर प्रश्न के बिना उतना ही निरर्थक है जितना धड़कन के बिना हृदय।
प्रश्न निर्माण है-अभिव्यक्ति है। प्रश्न स्वतंत्रता है!
प्रश्न अगर पूछना गैरकानूनी है तो वह प्रजातंत्र नहीं राजतंत्र है- दादागिरी है।
चाहे वह आपके देश का संविधान का हो या, आपकी इंद्रियों का!
आपने क्या कभी प्रश्न पूछने पर झीझके- तो वह झीझक- झीझक नहीं- एक प्रश्न है
हमारी शिक्षा प्रणाली पर- इंसानी बस्ती पर। हमारी परवरिश पर। हमारे झूठे शान पर। हर एक इंसान पर।
दुनिया उस दिन बदल जायेगी-जिस दिन प्रश्न पूछने वाले हक से- गर्व से-प्रश्न- पूछ सकेंगे।
ज़िन्दगी भर – ज़िन्दगी के लिए !