अतीत के पन्नों से – झांकता एक चेहरा
(एक – संस्मरण)
कोई रिश्ता नहीं – ना उम्र के बराबर था। एक शख्स था जिसके मैं बड़ा करीब था।
नाम :- कपिल। जगह:- कंपनी। मुलाकात :- छ: महीने पहले। काम :- प्लंबिंग।
मैं उसका असिस्टेंट।
पहला दिन था। मैं खाना लेकर नहीं गया था – भूख लगी थी – पर किसी को बताया नहीं था।
तब अचानक उसने पूछ लिया, “खाना खाया।” मैं बोला, “नहीं ।” ” शाम हो गई – अभी तक नहीं खाया।”
“वो-लाया नहीं-ना।” चल मैं, तुझको लेकर चलता हूं।
रवैया मददगार दयालु और दोस्ताना काफी। बूढ़े हो चले हैं।
पर बातें ऐसी – काम ऐसा कि नौजवान हो या एक्सपर्ट कोई भी मुसीबत पड़ने पर डायरेक्ट इन्हें बुलाते।
और वो वफादार भी थे। इसका सबूत यह है कि, जहां पहली बार काम शुरू किया था –
वहीं पर आज भी कर रहे हैं। भले ही जब वह अपने शुरुआती किस्से बताते हैं
कंपनी के तो रो देते हैं या पछताते हैं। हुआ यह था कि उनके सीनियर्स ने उनको बड़ा तंग किया था।
मत पूछो – बता नहीं पाऊंगा। इतना बुरा दंड और मजाक करते थे।
एक बार तो ऐसा मजाक किया गया था – उनके साथ की तीन दिन तक रोय थे।
“कंपनी क्यों नहीं छोड़ी?”तो पता चला, “हालातों के कारण।”
दसवीं करके वो हरियाणा स्टेट लेवल तक क्रिकेट खेल चुके थे।
सचिन तेंदुलकर – कपिल देव – शर्मिला टैगोर और ना जाने कितनों से मिल चुके थे,
क्रिकेट खेलते-खेलते। “फिर आपने क्रिकेट उस लेवल पर जाकर क्यों छोड़ दी ?”
जवाब मिला, “चाचा – ताऊ ने सलेक्शन की जो कागज आई थी।
वह फार दी थी। उसके बाद घर के हालात ऐसे हुए कि कुछ भी हो –
जैसा भी हो – चाहे कितना भी सहना पड़े – बल्ला छोड़ काम करना पड़ा।
उसके बाद मेरे साथ जिंदगी ने बहुत मजाक किया।
मैं सहता गया क्योंकि हालातों के हाथों मजबूर था।”
“चाचा – ताऊ पर गुस्सा नहीं आता?” मत पूछ,” मुझे उनका चेहरा तक देखना मंजूर नहीं था।
पर अब नहीं है धरती पर – फिर उनको कोस के क्या फायदा ? जो होना था – हो गया।
उसको सोचते बैठता तो मेरे परिवार को कौन संभालता! और बता क्या हाल है?
कैसे उदास है ?चलो घूम के आते हैं। उदास नहीं हुआ करते।
यह मैंने रो-रो के सीखा है। किसी को यहां कोई फर्क नहीं पड़ता।
खुद का ख्याल खुद ही रखना पड़ता है। जो काम कर रहे हैं – सिर्फ वही काम कर रहे हैं –
और जो आराम कर रहे हैं – वह सिर्फ आराम कर रहे हैं। काम करने वालों से ही काम लिया जाता है।
लोग हालातों का बड़ा फायदा उठाते हैं – और अपनी पदवीं का भी।
इनको सिर्फ अपने काम होने से मतलब है। तेरे होने या ना होने से नहीं।
तो तेरी उदासी से – इनको क्या फर्क पड़ेगा। पड़ेगा तो – तुझे पड़ेगा।
और किसी को नहीं।
देख मैं तो तुझे समझा सकता हूं – समझना तेरे को खुद ही पड़ेगा।”
फिर सोचता हूं। वह जो मन – मौजी था। बल्ला जिसके हाथों में था।
वह ऐसी बड़ी-बड़ी बातें ऐसे ही तो नहीं करता। सह चुका है तभी – तो सच कह रहा है।
फर्क किसी को नहीं पड़ता – हालात किसी को नहीं छोड़ते।
उस आदमी को देखकर समझ आता है – किस्मत और हालातों के साथ समझौता करना।
और एक सिख ना दुखी होने का ना दुखी करने का और ना दुखी देखने का। चाहे हालात जो भी हो बस मुस्कान बांटते चलने का।
और उनके लफ्ज़ों में, ” मैं अपना नंबर बनाकर चलता हूं। यानिकि रोब और सम्मान जमाना।
सीनियर्स के सामने झुकना – जूनियर्स पर थोड़ा अकड़ना। उनके नंबर बनाता था।
और सच्ची में उनका नंबर बना हुआ था। ऊपर से लेकर नीचे तक के पदवीं वाले ताऊ को मानते थे –
और ताऊ के मान को जिंदा रखते थे। “कपिल जी ही तो हमारी कंपनी के कर्ता-धर्ता है।”
और यह,”देखा मुझे कितना मानते हैं।” और यह झूठ भी ऐसी बोलते कि यकीन आ जाए।
शायद हालातों से लड़ते – लड़ते हैं। यह हुनर सीखा हो। फिर जो भी हो – जैसा भी हो।
वह मेरे उस कंपनी के वो हिस्से हैं जो हमेशा हालातों को स्वीकार कर –
गले में रस्सी डालने के बजाय। कुछ कर गुजरने के – साथ मुस्कुराने का मंत्र देते हैं ।
क्योंकि जीते जी ही नंबर बन सकता है – मर के नहीं।
MERI KITABEIN
ज़िन्दगी भर – ज़िन्दगी के लिए !