खिड़की:- समाज की सीमा क्यों?
खिडकी ! बड़ी जरूरी और खास जगह घर की। वह सुराख चारदिवारी की जहाँ से
बाहर की बात अंदर और अंदर की बात बाहर जाती है- वो खिड़की ही है।
जो कई यादों- जज्बातों की दहलीज है। हम इससे अवगमन तो नहीं पर हाँ,
हमारी इन्द्रियां जैसे कि सोच और आंखे इससे काफी जुड़ी है- जो चांद को निहारती है,
इसके जरिए- मुशाफिरों को देखती है- चुपके से बिना उनको बताय- ये कई यादें बनाती है ।
🙂😔😶😘🤔👇
☝️पर बात आज हसीन- रंगीन या बेरंग यादों की नहीं – एक विचार की है।
चलो आगे आज इस खिड़की से किसी वस्तु को नहीं मेरी सोच को निहारते हैं।
पर याद रहे कि खिड़की के इस पार मैं हूं- तो उस पार आप और
खिड़की खुली हुई है- पारदर्शी नजारा – आपके और मेरे लिए।
खिड़कियों पर अधिकतर हक- स्त्रियों का ही रहा है क्योंकि वो दहलीज पार नहीं करवाती।
और ये दहलीज हमारे समाज की सोच की सीमा रही है।
पर मैं एक लड़का – पागल – प्रेमी-किताबों-गजलों-शायरी का।
इसलिए हम अगर करेक्ट-लेश ना हो- तो बात नही जमती!
क्योंकि गर हम सीमा में बंध गय- तो दुनिया कभी सीमाहीन नहीं हो सकती ।
पर मैं गली के बच्चों वाला करेक्टर-लेश नही- पर फिर भी- मेरी खिड़की
पर उपस्थिति- मेरे करेक्टर पर सवाल खड़ करती है।
कैसे 🤔?
जो दहलीज पार नही कर सकती – वो उंगली कैसे उठा सकती है!
वो क्या है- ना, मैं मर्द जाति का हूं-ना- लड़कियों का खिड़कियों से झांकना स्वाभाविक होता है।
क्योंकि वही इकलौती जगह है- जहाँ से चांद भी बड़ा करीब लगता है(आजादी का प्रतीक)।
इसलिए खिड़कियाँ उनके नाम रही है।
पर सवाल मेरे पर क्यों उठते है- एक घटना क्या; दो-चार सुनाता हूं।
याद रहे मैं आपको खिड़की की देख रहा हूँ – और आप मुझे ।
पहला किस्सा 👇
सुबह सुबह कि बात थी- मैं मनमौजी- जी में आया तो खिड़की खोली और झाँकने लगा- तभी वहाँ से मुझे झांकते हुए देखते-मुस्कराते मेरा एक दोस्त गुजरा – शाम को भी यह वारदात हुई- वो मुझे देखता है- हंसता है-और चला जाता है। सौभाग्य से वो श्रीमान मेरे स्कूल में – मेरे साथ ही पढ़ते हैं। तो यह सिर्फ गली का दोस्त नही कक्षा का भी है – तो हम बैठे थे- कक्षा में अधायक नहीं था-और हम बच्चे- बातें करना तो बनती है तो बनती है। तो, बातों-बातों में, वो श्रीमान फिर मुस्कुराते हुए-वो सवाल जो मुझे वो खिड़की से झांकते हुए अपने आँखों से करना चाहतें थे- होठों से जाहिर किया; सवाल था कि मैं(दोस्त) जब भी रास्ते से गुजरता हूँ मैं वरूण को (मेरे को) खिड़की से बाहर झाँकते पाता हैं।
किसको ढूंढता है 👉 तु- वरुण। मेरा जवाब,”अपनी दुनियाँ को।”
उसका सवाल👉 अच्छा !
दुनियाँ कौन 🤔 ?
मैं 👉 बस अपनी भी कोई दुनियाँ है। बस बता नही सकता।
और हंसी-मजाक में दोस्त का प्रश्न था तो ज्यादा गहराई से सोचा नहीं उस वक्त ।
पर आदत है- खिड़की से झाँकते वक्त वस्तुओं को ना सिर्फ देखना- उनको घूरना भी- अच्छी तरीके से जानने के लिए।
पर उसका वो मुस्कुराहट- मेरे चैन को राहत नहीं देती – कोई और लड़का होता तो शायद खिड़की को बंद कर देता शायद। पर जैसा मैंने पहले कहा दिया मैं शामरी-गजलों का दिवाना हूं- तो करेक्टर लेश होने का मुझे ज्यादा गुमान नहीं। और वो ऐसे ही मुझे खिड़की पर खड़ा झांकते हुए-देख के मुस्कुराता।
दूसरा किस्सा👇
स्कूल की खिड़की और प्रिंसपल की आदेश से हमारा कक्षा चेंज। वजह साहब को पसंद नहीं। हमें तो यहीं बताया गया पर क्यों पसंद नहीं – इसका जवाब मेरे अध्यापक के कहने के अंदाज़ और उस मुस्कान में थी। 🙂
दरासल हुआ यह था कि हम बारहवीं कक्षा के स्टूडेंट्स हैं- तो शायद समझाने से कहां समझते। और उन में मैं था- खिड़की से बाहर देखना बंद कैसे कर देता। मैं ही नहीं- मेरे कई सारे सहपाठी खिड़की के पास सिर्फ इसलिए बैठते-ताकि बोरियत से बचने के लिए बाहर खुद को मुस्कुराते हुए खोज सके।
तो बाहर खड़की से झाँकते मुस्कुराते हुए हमें देखा कई बार प्रिंसिपल साहब ने। हमारे स्कूल में लड़किय भी पढ़ती हैं- और हमारे बगल में एक गलर्स पी.जी. भी है। और हम लड़के। और हमारे समाज की विडंबना कि वो ऐसे टॉपिक्स डिस्कस करने की जगह- जगह बदल देता है। पर सिर्फ जगह बदलती है। मनोस्थिति समान हमारी भी-प्रिंसपल की भी-और सारे स्कूल की भी। कुछ ही महीनों में वो खिड़की फिर से हमारी हो जाती है। प्रिंसीपल का भाषण यह- होता है कि, बेटा कमरा तो वही वाला अच्छा था- यहां तुम्हें बस। वहाँ की शोर के चक्कर से यहां वापस भेजा है। पर हमारी आदत है – खिड़की के पार देखने की। और साहब को इससे चिढ़!
तिसरा किस्सा 👇
मेरे माँ-बाप के सवाल। ये तु मुस्करा क्यों रहा है? वहां क्यों खड़ा है? और फिर मेरा एक सवाल- आपका सवाल-सवाल है या प्रश्न-चिनह, मेरी सोच पर भी हो सकती है और पूछने वाले की भी।उनको जवाब मिलता है- पर वो मुझे समझ नहीं पाते और हर अगले दिन वही सवाल!
और मैं बस खिड़की से बाहर- चुपचाप देखता रहता हूं। बगल में पड़ोसी परिवार संग भी रहते है – और मेरी खिड़की खुली हो और मैं वहाँ बैठा हूं- और वो लोग चाहे खेल रहे हो या बैठे हो या कुछ और काम कर रहे हो। उनकी नजरें भी उत्तर ही तलाशती है।
पर ये उत्तर सिर्फ मैं ही क्यों दूं- सोच की सीमा आपकी भी तो है। और मैं तो वहां उस खिड़की पर उस समय में भी बैठा रहता हूं, जब वहां कोई नहीं होता- सिवाय सन्नाटे और चांद तारों के। मैं तो खिड़की से देखूंगा:- क्योंकि खिड़की में अंदर एक नई प्रेरणा का वाहक है।
और खिड़की किसी लड़की और लड़के की नहीं। उन सभी की है जिनकी सोच विस्तृत है-जिनको चांद छूना है-जिनको हवा महसूस करनी है-जिनको बिना दहलीज लांघे- बाहरी दुनिया घूमना है।
खिड़की सभी के लिए है।
खिड़की पर खड़े व्यक्ति पर सवाल नहीं है-वरन सवाल, असल में खिड़की पूछती है कि क्या तुम्हारी समझ सीमा सिर्फ लड़का और लड़की तक है।
ज़िन्दगी भर – ज़िन्दगी के लिए !