उस- ओर
कुछ अजीब-सा | बेकार वहाँ ज्यादा कुछ था नहीं जितना उसने उस और से देखा था।
वहाँ पहुंचते ही बिना रुके वापस उस तट पर जाने को सोचा।
मगर रात हो गई और उसे उसी तट पे सोना पड़ा ।
वो रात बहुत काली थी, अमावस की रात से भी ज्यादा काली, चुड़ैल से भी ज्यादा डरावनी ।
वाह सो नहीं पता है ।और सूरज की पहली किरण की किरण पाकर।
वो उस तट की ओर दुबारा लौटना चाहा। मगर अफसोस ! की उसका नाव रात बढ़ में कहीं खो गया था।
अब वो इस तट से उस तट को देखा करता, बड़ सुंदर मनमोहक लगता जितना वहाँ रहने पर नही लग रहा था। और यह उतना ही डरावना लगता जितना उस तट से सुहावना लगता था। नाविक से ज्यादा दिन उस तट पर रहा नही गया।क्योंकि वो तट सिर्फ दूर से ही पूर्णिमा का चाँद लगता मगर था वो आमवस्य का चाँद जैसा। दो दिन बाद ही वो नाविक वहाँ मरा पड़ा था। और गिद्ध उसको नोच-नोच के खा रहे थे।….वरूण
ज़िन्दगी भर – ज़िन्दगी के लिए !